पृष्ठ:कर्बला.djvu/१७३

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पाँचवाँ अङ्क
पहला दृश्य

[ समय ९ बजे दिन। दोनों फ़ौजें लड़ाई के लिए तैयार हैं। ]

हुर---या हज़रत, मुझे मैदान में जाने की इजाज़त मिले। अब शहादत का शौक़ रोके नहीं रुकता।

हुसैन---वाह, अभी आये हो, और अभी चले जाओगे। यह मेहमाँन ने वाज़ी का दस्तूर नहीं कि हम तुम्हें आते-ही-आते रुखसत कर दें।

हुर---या फ़र्ज़न्दे-रसूल, मैं आपका मेहमान नहीं, ग़ुलाम हूँ। अापके क़दमों पर निसार होने के लिए आया हूँ।

हुसैन---( हुर के गले मिलकर आँखों में आँसू भरे हुए ) अगर तुम्हारी इसी मे खुशी है, तो जाओ, खुदा को सौंपा।

दुनिया के शहीदों में तेरा नाम हो भाई ,
उक़बा में तुझे राहतोआराम हो भाई।

[ हुर मैदान की तरफ़ चलते हैं, हुसैन ख़ेमे के दरवाज़े तक उन्हें पहुँचाने आते हैं। ख़ेमे से निकलते हुए हुर हुसैन के कदमों को बोसा देते हैं, और चले जाते हैं। ]

हुर---( मैदान में जाकर )

ग़ुलाम हज़रते शब्बीर रन में आता है,
वही जो दीं का है बंदा, वह मेरा आक़ा है।
वह आये ठोंक के खम, जिसकी मौत आयी है,
उसी का पीने को खूँ मेरी तेग़ आयी है।

[ सफ़वान उधर से झूमता हुआ आता है। ]

हुर---सफ़वान, कितनी शर्म की बात है कि तुम फ़र्ज़न्दे-रसूल से जंग करने आये हो?