वलीद-(स्वगत) मरवान कितना खुदग़रज़ आदमी है । मेरा मातहत होकर भी मुझ पर रोब जमाना चाहता है। उसकी मरज़ी पर चलता, तो आज सारा मदीना मेरा दुश्मन होता। उसने रसूल के खानदान से हमेशा दुश्मनी की है।
क़ासिद-या अमीर, यह खलीफ़ा यज़ीद का खत है।
वलीद-(घबराकर) ख़लीफ़ा यज़ीद ! अमीर मुआविया को क्या । हुआ?
क़ासिद-आपको पूरी कैफियत इस खत से मालूम होगी।
वलीद-(खत पढ़कर) अमीर मुबाबिया की रूह को खुदा जन्नत में दाखिल करे । मगर समझ में नहीं आता कि यजीद क्योंकर खलीफा हुए। कौम के नेताओं की कोई मजलिस नहीं हुई, और किसी ने उनके हाथ पर बैयत नहीं ली । मदीने भर में यह खबर फैलेगी, तो ग़ज़ब हो जायगा । हुसैन यज़ीद को कभी न खलीफ़ा मानेंगे।
क़ासिद-(दूसरा खत देकर) हुजूर, इसे भी देख लें।
"वलीद, हाकिम मदीना को ताकीद की जाती है कि इस खत को देखते ही हुसैन से मेरे नाम पर बैयत लें । अगर हुसैन बैयत न लें, तो उन्हें क़त्ल कर दें, और उनका सिर मेरे पास भेज दें।"
क़ासिद-मुझे क्या हुक्म होता है ?
वलीद-तुम जाकर बाहर ठहरो । (दिल में) खुदा वह दिन न लाये कि मुझे रसूल के नवासे के साथ यह घृणित व्यवहार करना पड़े। वलीद