पृष्ठ:कर्बला.djvu/७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
७०
कर्बला

ए॰ सि॰---या सुलेमान, हमारी क्या ख़ता है? जिस आक़ा के ग़ुलाम हैं, उसका हुक्म न मानें, तो रोटियाँ क्योंकर चलें?

मू॰---जिस पेट के लिए तुम्हें खुदा के बन्दों को ईज़ा पहुँचानी पड़े, उसको चाक कर देना चाहिए।

[ सिपाहियों और बाग़ियों में लड़ाई होने लगती है। ]

सुले॰---भाइयो, आपने इन ज़ालिमों के साथ वही सलूक किया, जो वाजिब था, मगर भूल न जाइए कि ज़ियाद इसकी इत्तिला यज़ीद को ज़रूर देगा, और हमें कुचलने के लिए शाम से फ़ौज आयेगी। आप लोग उसका मुक़ाबला करने को तैयार हैं?

एक आवाज़---अगर तैयार नहीं हैं, तो हो जायँगे।

सुले॰---हमने अभी तक यज़ीद की बैयत नहीं क़बूल की, और न करेंगे। इमाम हुसैन की ख़िदमत में बार-बार क़ासिद भेजे गये, मगर वह तशरीफ़ नहीं लाये। ऐसी हालत में हमें क्या करना चाहिए?

हानी---हममें से चन्द ख़ास आदमी खुद जायँ, और उन्हें साथ लायें।

मुख़्तार---हम लोगों ने रसूल की औलाद के साथ बार-बार ऐसी दग़ा की है कि हमारा एतबार उठ गया। मुझे खौफ़ है कि हज़रत हुसैन यहाँ हर्गिज़ न आयेंगे।

सुले॰--–एक बार अाख़िरी कोशिश करना हमारा फ़र्ज़ है हम लोग चलकर उनसे अर्ज़ करें कि हम क़त्ल किये जा रहे हैं, लूटे जा रहे हैं, हमारी औरतों की आबरू भी सलामत नहीं। हमारी मुसीबत की कहानी सुनकर हुसैन को ज़रूर तरस आयेगा, उनका दिल इतना सख़्त नहीं हो सकता।

मुख़्तार---मगर वह तुम्हारी मुसीबतों पर तरस खाकर आये, और तुमने उनकी मदद न की, तो सब-के-सब रूस्याह कहलाओगे। हमने पहले जो दग़ाएँ की हैं, उनका फल पा रहे हैं, और फिर वही हरक़त की, तो हम दुनिया और दीन में कहीं भी मुँह न दिखा सकेंगे। खूब सोच लो, खीर तक तुम अपने ईरादे पर क़ायम रह सकोगे? अगर तुम्हारा दिल हामी भरे,