पृष्ठ:कर्बला.djvu/८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८३
कर्बला

बुरा वक़्त जिस वक्त आता है 'बिस्मिल',
नहीं साथ देता ज़माना किसी का।

[ परदा गिरता है। ]



छठा दृश्य

[संध्या का समय। सूर्यास्त हो चुका है। कूफ़ा का शहर---कई सारवान ऊँट का गल्ला लिये दाख़िल हो रहे हैं। ]

पहला---यार, गलियो से चलना, नहीं तो किसी सिपाही की नज़र पड़ जाय, तो महीनों बेगार झेलनी पड़े।

दूसरा--–हाँ-हाँ, वे बला के मूज़ो है। कुछ लादने को नहीं होता, तो यों ही बैठ जाते हैं, और दस-बीस कोस का चक्कर लगाकर लौट आते हैं। ऐसा अंधेर पहले कभी न होता था। मजूरी तो भाड़ मे गयी, ऊपर से लात और गालियाँ खाओ।

तीसरा---यह सब महज़ पैसे आँटने के हथकंडे हैं। न-जाने कहाँ के कुत्ते अाके सिपाह में दाखिल हो गये। छोटे-बडे एक ही रंग में रँगे हुए हैं।

चौथा---अमीर के पास फ़रियाद लेकर जाओ, तो उलटे और बौछार पड़ती है। अजीब मुसीबत का सामना है। हज़रत हुसैन जब तक न आयेंगे, हमारे सिर से यह बला न टलेगी।

[ मुस्लिम पीछे से आते हैं। ]

मु॰---क्यों यारो, इस शहर में कोई ख़ुदा का बंदा ऐसा है, जिसके यहाँ मुसाफिरों को ठहरने की जगह मिल जाय?

पहला--–यहाँ के रईसों की कुछ न पूछो। कहने को दो-चार बड़े आदमी हैं, मगर किसी के यहाँ पूरी मजूरी नहीं मिलती। हाँ, ज़रा गालियाँ कम देते हैं।