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कर्बला

बहुत-सी आवाजें---हम यज़ीद की बैयत मंजूर करते हैं। यज़ीद हमारा ख़लीफ़ाहै।

ज़ियाद---नहीं, यज़ीद, बैयत के लिए आपको रिश्वत नहीं देता। बैयत अापके अख्त़ियार में है, जिसे जो चाहे, दीजिए। यज़ीद हुसैन से दुश्मनी करना नहीं चाहता। उसका हुक्म है कि नदियों के घाट काम हसूल मुआफ़ कर दिया जाय।

बहुत-सी आवाजें---हम यज़ीद को अपना ख़लीफ़ा तसलीम करते हैं।

ज़ियाद---नहीं-नहीं, यज़ीद कभी हुसैन के हक़ को जायल न करेगा। हुसैन मालिक हैं, फ़ाजिल हैं, आबिद हैं, ज़ाहिद हैं, यज़ीद को इसमें से कोई सिफ़त रखने का दावा नहीं। यज़ीद में अगर कोई सिफ़त है, तो यह कि वह ज़ुल्म करना जानता है, खासकर नाजुक वक्त पर, जब माल और जान की हिफ़ाजत करनेवाला कोई न हो, जब सब अपने हक़ और दावे पेश करने में मसरूफ़ हों।

बहुत-सी आवाजें'---ज़ालिम यज़ीद ही हमारा अमीर है। हम दिल से उसकी बैयत क़बूल करते हैं।

ज़ियाद---सोचिए, और ग़ौर से सोचिए। अगर ख़िलाफ़त के दूसरे दावेदारों की तरह यज़ीद भी किसी गोशे में बैठे हुए बैयत की फ़िक्र करते, तो अाज मुल्क की क्या हालत होती? अापकी जान व माल की हिफ़ाज़त कौन करता? कौन मुल्क को बाहर के हमलों से और अन्दर की लड़ाइयों से बचाता? कौन सड़कों और बन्दरगाहों को डाकुओं से महफ़ूज़ रखता? कौन क़ौम की बहू-बेटियों की हुरमत का ज़िम्मेदार होता? जिस एक आदमी की ज़ात से क़ौम और मुल्क को नाजुक मौके पर इतने फ़ायदे पहँचे हों, और जिसने खलीफ़ा चुने जाने का इन्तज़ार न करके ये बड़ी-बड़ी जिम्मेदारियाँ सिर पर ले ली हों, क्या वह इसी क़ाबिल है कि उसे मलऊन और मरदूद कहा जाय, उसे सरे बाज़ार गालियाँ दी जाय?

एक आवाज---हम बहुत नादिम हैं। खुदा हमारा गुनाह मुआफ करे।

शिमर---हमने खलीफ़ा यज़ीद के साथ बड़ी बेइन्साफी की है।