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गया। उसके मुकाबिले में एक नामी वकील साहब खड़े थे। उन्हें उसके चौथाई वोट भी न मिले। सुखदा और लाला समरकान्त दोनों ही ने उसे मना किया। दोनो ही उसे घर के कामों में फैलाना चाहते थे। अब वह पढ़ना छोड़ चुका था और लालाजी उसके माथे सारा भार डाल कर खुद अलग हो जाना चाहते थे। इधर-उधर के कामों में पड़ कर वह घर का काम क्या कर सकेगा। एक दिन घर में छोटा-मोटा तुफ़ान आ गया। लालाजी और सुखदा एक तरफ़ थे, अमर दूसरी तरफ़ और नैना मध्यस्थ थी।

लाला ने तोंद पर हाथ फेरकर कहा--धोबी का कुत्ता, घर का न घाट का। भोर से पाठशाले जाओ, साँझ हो तो कांग्रेस में बैठो, अब यह नया रोग और बेसाहने को तैयार हो। घर में लगा दो आग!

सुखदा ने समर्थन किया--हाँ, अब तुम्हें घर का काम-धन्धा देखना चाहिए या व्यर्थ के कामों में फँसना ? अब तक तो यह था कि पढ़ रहे हैं। अब तो पढ़ चुके हो। अब तुम्हें अपना घर सँभालना चाहिए। इस तरह के काम तो वे उठायें, जिनके घर दो-चार आदमी हों। अकेले आदमी को घर से ही फुर्सत नहीं मिल सकती। ऊपर के काम कहाँ से करे।

अमर ने कहा--जिसे आप लोग रोग और ऊपर का काम और व्यर्थ का झंझट कह रहे हैं, मैं उसे घर के काम से कम जरूरी नहीं समझता। फिर जब तक आप हैं, मुझे क्या चिन्ता। और सच तो यह है कि मैं इस काम के लिए बनाया ही नहीं गया। आदमी उसी काम में सफल होता है, जिसमें उसका जी लगता हो। लेन-देन, वनिज-व्यापार में मेरा जी बिलकुल नहीं लगता। मुझे डर लगता है, कि कहीं बना-बनाया काम बिगाड़ न बैठूँ।

लालाजी को यह कथन सार-हीन जान पड़ा। उनका पुत्र वनिज व्यवसाय के काम में कच्चा हो यह असम्भव था। पोपले मुँह में पान चबाते हुए बोले--यह सब तुम्हारी मोटमरदी है। मैं न होता, तो तुम क्या अपने बाल-बच्चों का पालन पोषण न करते ? तुम मुझी को पीसना चाहते हो। एक लड़के वह होते हैं, जो घर सँभाल कर बाप को छुट्टी दे देते हैं। एक तुम हो कि हड्डियाँ तक नहीं छोड़ना चाहते।

बात बढ़ने लगी। सुखदा ने मामला गर्म होते देखा, तो चुप हो गई। नैना उँगलियों से दोनों कान बन्द करके घर में जा बैठी। यहाँ दोनों पहलवानों में

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कर्मभूमि