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'मैं संसार का गुलाम नहीं हूँ। अगर तुम्हें वह गुलामी पसन्द है, तो शौक से करो। तुम मुझे मजबूर नहीं कर सकतीं।'

'नौकरी न करूँ, तो तुम्हारे रुपये-बीस आने रोज में घर का खर्च निभेगा?

मेरा खयाल है, कि इस मुल्क में नब्बे फ़ी-सदी आदमियों को इससे भी कम में गुजर करना पड़ता है।'

'मैं उन नब्बे फ़ी-सदी वालों में नहीं शेष दस फ़ी-सदी वालों में हूँ। मैंने तुमसे अन्तिम बार कह दिया कि तुम्हारा बकचा ढोना मुझे असह्य है और अगर तुमने न माना तो मैं अपने हाथों वह बकचा जमीन पर गिरा दूंगी। इससे ज्यादा मैं कुछ कहना या सुनना नहीं चाहती।'

इधर डेढ़ महीने से अमरकान्त सकीना के घर न गया था। याद उसकी रोज आती; पर जाने का अवसर न मिलता। पन्द्रह दिन गुजर जाने के बाद उसे शर्म आने लगी, कि वह पूछेगी--इतने दिनों क्यों नहीं आये, तो क्या जवाब दूँगा। इस शर्मा-शर्मी में वह एक महीना और न गया। यहाँ तक कि आज सकीना ने उसे एक कार्ड लिखकर खैरियत पूछी थी और फुरसत हो, तो दस मिनट के लिए बुलाया था। आज अम्माजान बिरादरी में जानेवाली थीं। बात-चीत करने का अच्छा मौका था। इधर अमरकान्त इस जीवन से ऊब उठा था। सुखदा के साथ जीवन कभी सुखी नहीं हो सकता, इधर इन डेढ़-दो महीनों में उसे काफी परिचय मिल गया था। वह जो कुछ है, वही रहेगा, ज्यादा तबदील नहीं हो सकता। सुखदा भी जो कुछ है, वही रहेगी। फिर सुखी जीवन की आशा कहाँ? दोनों की जीवन-धारा अलग, आदर्श अलग, मनोभाव अलग। केवल विवाह प्रथा की मर्यादा निभाने के लिए वह अपना जीवन धूल में नहीं मिला सकता, अपनी आत्मा के विकास को नहीं रोक सकता। मानव-जीवन का उद्देश्य कुछ और भी है, खाना कमाना और मर जाना नहीं।

वह भोजन करके आज काँग्रेस-दफ्तर न गया। आज उसे अपनी ज़िन्दगी की सबसे महत्त्वपूर्ण समस्या को हल करना था। इसे अब वह और नहीं टाल सकता। बदनामी की क्या चिन्ता। दुनिया अन्धी है और दूसरों को अन्धा बनाये रखना चाहती है। जो खुद अपने लिए नयी राह निकालेगा, उस पर संकीर्ण विचारवाले हँसे तो क्या आश्चर्य।

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कर्मभूमि