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'सकीना का हाल भी कुछ सुनना चाहते हो? माँ को बीसों ही बार भेजा, कपड़े भेजे; पर कोई चीज़ न ली। माँ कहती है, दिन भर में एकाध चपाती खा ली तो खा ली, नहीं चुपचाप पड़ी रहती है। दादी से बोलचाल बन्द है। कल तुम्हारा खत पाते ही उसके पास भेज दिया था। उसका जवाब जो आया, उसकी हूबहू नक़ल यह है। असली खत उस वक्त देखने को पाओगे जब यहां आओगे---

'बाबूजी, आपको मुझ बदनसीब के कारण यह सजा मिली, इसका मुझे बड़ा रंज है। और क्या कहूँ। जीती हूँ और आपको याद करती हूँ। इतना अरमान है, कि मरने के पहले एक बार आपको देख लेती; लेकिन इसमें भी आपकी बदनामी ही है, और मैं तो बदनाम हो ही चुकी। कल आपका खत मिला, तबसे कितनी ही बार सौदा उठ चुका है कि आपके पास चली आऊँ। क्या आप नाराज़ होंगे? मुझे तो यह खौफ़ नहीं है। मगर दिल को समझाऊँगी और शायद कभी मरूँगी भी नहीं। कुछ देर तो गुस्से के मारे तुम्हारा खत न खोला। पर कब तक? खत खोला, पढ़ा, रोयी, फिर पढ़ा, फिर रोयी। रोने में इतना मज़ा है कि जी नहीं भरता। अब इन्तज़ार की तकलीफ़ नहीं झेली जाती। खुदा आपको सलामत रखे।'

'देखा, यह खत कितना दर्दनाक है! मेरी आँखों में बहुत कम आँसू आते है; लेकिन यह खत देखकर ज़ब्त न कर सका। कितने खुशनसीब हो तुम !'

अमर ने सिर उठाया, तो उसकी आँखों में नशा था, वह नशा जिसमें आलस्य नहीं, स्फूर्ति है; लालिमा नहीं, दीप्ति है; उन्माद नहीं, विस्मृति नहीं, जागृति है। उसके मनोजगत् में ऐसा भूकम्प कभी न आया था। उसकी आत्मा कभी इतनी उदार, इतनी विशाल, इतनी प्रफुल्ल न थी। आँखों के सामने दो मूर्तियाँ खड़ी हो गयीं, एक विलास में डूबी हुई, रत्नों से अलंकृत, गर्व में चूर; दूसरी सरल माधुर्य से भूषित, लज्जा और विनय से सिर झुकाये हुए। उसका प्यासा हृदय उस खुशबूदार, मीठे शरबत से हटकर इस शीतल जल की ओर लपका। उसने पत्र के उस अंश को फिर पढ़ा, फिर आवेश में जाकर गंगा-तट पर टहलने लगा। सकीना से कैसे मिले? यह ग्रामीण जीवन उसे पसन्द आयेगा? कितनी सुकुमार है, कितनी कोमल! वह और यह कठोर जीवन? कैसे जाकर उसकी दिलजोई करे। उसकी वह सूरत याद आयी, जब उसने

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कर्मभूमि