पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/१९७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

ठाकुर-द्वारे में लोग जमा हो गये। लाला समरकान्त को देखते ही कई सज्जनों ने पूछा--अमर कहीं चले गये क्या सेठजी! क्या बात हुई?

लालाजी ने जैसे इस बात को काटते हुए कहा--कुछ नहीं, उसकी बहुत दिनों से घूमने-धामने की इच्छा थी, पूर्वजन्म का तपस्वी है कोई, उसका बस चले, तो मेरी सारी गृहस्थी एक दिन में लुटा दे। मझसे यह नहीं देखा जाता। बस, यही झगड़ा है। मैंने गरीबी का मजा भी चखा है। अमीरी का मजा भी चखा है। उसने अभी गारीबी का मज़ा नहीं चखा। साल छ: महीने उसका मजा चख लेगा, तो आँख खुल जायँगी। तब उसे मालूम होगा कि जनता की सेवा भी वही लोग कर सकते हैं, जिनके पास धन है। घर में भोजन का आधार न होता, तो मेम्बरी भी न मिलती।

किसी को और कुछ पूछने का साहस न हुआ। मगर मूर्ख पुजारी पूछ ही बैठा--सुना, किसी जुलाहे की लड़की से फंस गये थे?

यह अक्खड़ प्रश्न सुनकर लोगों ने जीभ काटकर मुँह फेर लिये। लालाजी ने पुजारी को रक्त भरी आँखों से देखा और ऊँचे स्वर में बोले--हाँ, फँस गये थे, तो फिर ? कृष्ण भगवान् ने एक हजार रानियों के साथ नहीं भोग किया था? राजा शान्तनु ने मछुए की कन्या से नहीं भोग किया था? कौन राजा है, जिसके महल में दो सौ रानियाँ न हों? अगर उसने किया, तो कोई नयी बात नहीं की। तुम-जैसों के लिए यही जवाब हैं। समझदारों के लिए यह जवाब है कि जिसके घर में अप्सरा-सी स्त्री हो, वह क्यों जूठी पत्तल चाटने लगा। मोहन-भोग खानेवाले आदमी चबैने पर नहीं गिरते।

यह कहते हुए लालाजी प्रतिमा के संमुख गये; पर आज उनके मन में वह श्रद्धा न थी। दुःखी आशा से ईश्वर में भक्ति रखता है, सुखी भय से। दुःखी पर जितना ही अधिक दुःख पड़े, उसकी भक्ति बढ़ती जाती है। सुखी पर दुःख पड़ता है, तो वह विद्रोह करने लगता है। वह ईश्वर को भी अपने धन के आगे झुकाना चाहता है। लालाजी का व्यथित हृदय आज सोने और रेशम से जगमगाती हुई प्रतिमा में धैर्य और सन्तोष का सन्देश न पा सका। कल तक यही प्रतिमा उन्हें बल और उत्साह प्रदान करती थी। उसी प्रतिमा से आज उनका विपद्ग्रस्त मन विद्रोह कर रहा था। उनकी भक्ति का यही पुरस्कार है? उनके स्नान, व्रत और निष्ठा का यही फल है?

कर्मभूमि १९३