सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/१९९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

नैना ने खत पाते ही पढ़ डाला था। बोली--भैया का।

सुखदा ने पूछा--अच्छा! उनका खत है ? कहाँ हैं ?

'हरिद्वार के पास किसी गाँव में हैं।'

आज पाँच महीनों से दोनों में अमरकान्त की चर्चा न हई थी। मानों वह कोई घाव था, जिसको छूते दोनों ही के दिल काँपते थे। सुखदा ने फिर कुछ न पूछा। बच्चे के लिए फ्राक सी रही थी। फिर सीने लगी।

नैना पत्र का जवाब लिखने लगी। इसी वक्त वह जवाब भेज देगी। आज पाँच महीने में आपको मेरी सुधि आई है। जाने क्या-क्या लिखना चाहती थी। कई घंटों के बाद वह खत तैयार हुआ, जो हम पहले ही देख चुके हैं। खत लेकर वह भाभी को दिखाने गयी। सूखदा ने देखने की ज़रूरत न समझी।

नैना ने हताश होकर पूछा--तुम्हारी तरफ़ से भी कुछ लिख दूँ ?

'नहीं कुछ नहीं।'

'तुम्हीं अपने हाथ से लिख दो !'

'मुझे कुछ नहीं लिखना है।'

नैना रुआँसी होकर चली गयी। खत डाक में भेज दिया गया।

सुखदा को अमर के नाम से भी चिढ़ है। उसके कमरे में अमर की एक तसवीर थी, उसे उसने तोड़कर फेंक दिया था। अब उसके पास अमर की याद दिलानेवाली कोई चीज न थी। यहाँ तक कि बालक से भी उसका जी हट गया था। वह अब अधिकतर नैना के पास रहता था। स्नेह के बदले वह अब उस पर दया करती थी; पर इस पराजय ने उसे हताश नहीं किया, उसका आत्माभिमान कई गुना बढ़ गया है। आत्मनिर्भर भी अब कहीं ज्यादा हो गयी है। वह अब किसी की अपेक्षा नहीं करना चाहती। स्नेह के दबाव के सिवा और किसी दबाव से उसका मन विद्रोह करने लगता है। उसकी विलासिता मानो मान के वन में खो गयी है !

लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि सकीना से उसे लेशमात्र भी द्वेष नहीं है। वह उसे भी अपनी ही तरह, बल्कि अपने से अधिक दुःखी समझती है। उसकी कितनी बदनामी हुई, और अब बेचारी उस निर्दयी के नाम को रो रही है। वह सारा उन्माद जाता रहा। ऐसे छिछोरों का एतबार ही क्या !

कर्मभूमि १९५