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रही थी। अमरकान्त उससे सहानुभूति करके उसे अपने अनुकूल बना सकता था। पर शुष्क त्याग का रूप दिखाकर उसे भयभीत कर रहा था।



अमरकान्त मैट्रिकुलेशन की परीक्षा में प्रान्त में सर्वप्रथम आया; पर अवस्था अधिक होने के कारण छात्रवृत्ति न पा सका। इससे उसे निराशा की जगह एक तरह का सन्तोष हुआ; क्योंकि वह अपने मनोविकारों की कोई टिकौना न देना चाहता था। उसने कई बड़ी-बड़ी कोठियों में पत्र-व्यवहार करने का काम उठा लिया। धनी पिता का पुत्र था, यह काम उसे आसानी से मिल गया। लाला समरकान्त की व्यवसाय-नीति से प्रायः उनको बिरादरीवाले जलते थे और पिता-पुत्र के इस वैमनस्य का तमाशा देखना चाहते थे। लालाजी पहले तो बहुत बिगड़े। उनका पुत्र उन्हीं के सहवर्गियों की सेवा करे ? यह उन्हें अपमानजनक जान पड़ा; पर अमर ने उन्हें सुझाया कि वह यह काम केवल व्यावसायिक ज्ञानोपार्जन के भाव से कर रहा है। लालाजी ने भी समझा, कुछ-न-कुछ सीख ही जायगा। विरोध करना छोड़ दिया। सुखदा इतनी आसानी से माननेवाली न थी। एक दिन दोनों की इसी बात पर भीड़ हो गयी।

सुखदा ने कहा--तुम दस-दस पाँच-पाँच रुपये के लिए दूसरों की खुशामद करते फिरते हो, तुम्हें शर्म भी नहीं आती!

अमर ने शान्तिपूर्वक कहा--काम करके कुछ उपार्जन करना शर्म की बात नहीं। दूसरों का मुँह ताकना शर्म की बात है।

'तो ये धनियों के जितने लड़के हैं सभी बेशर्म है ?"

'है ही, इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। अब तो लालाजी मुझे खुशी से भी रुपये दें, तो न लूँ। जब तक अपनी सामर्थ्य का ज्ञान न था, तब तक कष्ट देता था। जब मालम हो गया, कि मैं अपने खर्च भर को कमा सकता हूँ, तो किसी के सामने हाथ क्यों फैलाऊँ?'

सुखदा ने निर्दयता के साथ कहा--तो जब तुम अपने पिता से कुछ लेना अपमान की बात समझते हो, तो मैं क्यों उनकी आश्रित बनकर रहूँ ? इसका

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