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तरफ के ऊँचे मकान कुछ नीचे, और सड़कों के दोनों ओर खड़े होनेवाले मनुष्य कुछ छोटे मालूम होते थे, पर इतनी नम्रता, इतनी विनय उसमें कभी न थी। मानों इस यश और ऐश्वर्य के भार से उसका सिर झुका जाता हो।

इधर गंगा के तट पर चिताएँ जल रही थीं, उधर मन्दिर इस उत्सव के आनन्द में दीपकों के प्रकाश से जगमगा रहा था, मानों वीरों की आत्माएँ चमक रही हों!


दूसरे दिन मन्दिर में कितना समारोह हुआ, शहर में कितनी हलचल मची, कितने उत्सव मनाये गये, इसकी चरचा करने की जरूरत नहीं। सारे दिन मन्दिर में भक्तों का तांता लगा रहा। ब्रह्मचारी आज फिर विराजमान हो गये थे और जितनी दक्षिणा उन्हें आज मिली, उतनी शायद उम्र भर में न मिली होगी। इससे उनके मन का विद्रोह बहुत कुछ शान्त हो गया; किन्तु ऊँची जातिवाले सज्जन अब भी मन्दिर में देह बचाकर आते और नाक सिकोड़े हुए कतराकर निकल जाते थे। सुखदा मन्दिर के द्वार पर खड़ी लोगों का स्वागत कर रही थी। स्त्रियों से गले मिलती थी, बालकों को प्यार करती थी और पुरुषों को प्रणाम करती थी।

कल की सुखदा और आज की सुखदा में कितना अन्तर हो गया है ? भोगविलास पर प्राण देनेवाली रमणी आज सेवा और दया की मूर्ति बनी हुई है। इन दुखियों की भक्ति, श्रद्धा और उत्साह देख-देख कर उसका हृदय पुलकित हो रहा है। किसी की देह पर साबूत कपड़े नहीं हैं, आँखों से सूझता नहीं, दुर्बलता के मारे सीधे पाँव नहीं पड़ते, पर भक्ति में मस्त दौड़े चले आ रहे हैं, मानों संसार का राज्य मिल गया हो, जैसे संसार से दुःख दरिद्रता का लोप हो गया हो। ऐसी सरल, निष्कपट भक्ति के प्रभाव में सुखदा भी बही जा रही थी। प्रायः मनस्वी, कर्मशील, महत्वाकांक्षी प्राणियों की यही प्रकृति है। भोग करनेवाले ही वीर होते हैं।

छोटे-बड़े सभी सुखदा को पूज्य समझ रहे थे, और उनकी यह भावना सुखदा में एक गर्वमय सेवा का भाव प्रदीप्त कर रही थी। कल उसने जो

कर्मभूमि
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