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राग अलापोगे तो मैं कहे देती हूँ, मैं अपने घर चली जाऊँगी। तुम जिस तरह जीवन व्यतीत करना चाहते हो, वह मेरे मन की बात नहीं। तुम बचपन से ठुकराये गये हो और कष्ट सहने के अभ्यस्त हो। मेरे लिए यह नया अनुभव है।

अमरकान्त परास्त हो गया। इसके कई दिन बाद उसे कई जवाब सूझे, पर इस वक्त कुछ जवाब न दे सका। नहीं, उसे सुखदा की बातें न्याय-संगत मालूम हुईं। अभी तक उसकी स्वतन्त्र कल्पना का आधार पिता की कृपणता थी। उसका अंकुर विमाता की निर्ममता ने जमाया था। तर्क या सिद्धान्त पर उसका आधार न था; और वह दिन तो अभी दूर, बहुत दूर था, जब उसके चित्त की वृत्ति ही बदल जाय। उसने निश्चय किया--पत्र व्यवहार का काम छोड़ दूँगा। दुकान पर बैठने में भी उसकी आपत्ति उतनी तीव्र न रही। हाँ, अपनी शिक्षा का खर्च वह पिता से लेने पर किसी तरह अपने मन को न दबा सका। इसके लिए उसे कोई दूसरा गुप्त मार्ग खोजना ही पड़ेगा। सुखदा से कुछ दिनों के लिए उसकी संधि-सी हो गयी।

इस बीच में एक और घटना हो गयी, जिसने उसकी स्वतन्त्र कल्पना को भी शिथिल कर दिया।

सुखदा इधर साल भर से मैके न गयी थी। विधवा माता बार-बार बुलाती थी, लाला समरकान्त भी चाहते थे, कि दो-एक महीने के लिए हो आये ; पर सुखदा जाने का नाम न लेती थी। अमरकान्त की ओर से वह निश्चिन्त न हो सकती थी। वह ऐसे घोड़े पर सवार थी, जिसे नित्य फेरना लाजिम था, दस-पाँच दिन बँधा रहा तो फिर पुट्ठे पर हाथ ही न रखने देगा। इसीलिए वह अमरकान्त को छोड़कर न जाती थी।

अन्त में माता ने स्वयं काशी आने का निश्चय किया। उनकी इच्छा अब काशीवास करने की भी हो गयी। एक महीने तक अमरकान्त उनके स्वागत की तैयारियों में लगा रहा। गंगातट पर बड़ी मुशकिल से पसंद का घर मिला, जो न बहुत बड़ा था, न बहुत छोटा। इसकी सफाई और सुफेदी में कई दिन लगे। गृहस्थी की सैकड़ों ही चीजें जमा करनी थीं। उसके नाम सास ने एक हजार का बीमा भेज दिया था। उसने कतर-ब्योंत से उसके आधे ही में सारा प्रबन्ध कर दिया था। पाई-पाई का हिसाब लिखा था। जब सासजी प्रयाग

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कर्मभूमि