पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/२३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।


चाहूँ तो सबसे ऊपर भी आ सकता हूँ, मगर फ़ायदा क्या। रुपये तो बराबर ही मिलेंगे।

शांतिकुमार ने पूछा-तो तुम भी गरीबों का खून चूसोगे क्या?

सलीम ने निर्लज्जता से कहा-गरीबों के खून पर तो अपनी परवरिश हुई। अब और क्या कर सकता हूँ। यहाँ तो जिस दिन पढ़ने बैठे, उसी दिन से मुफ्तखोरी की धुन समाई; लेकिन आपसे सच कहता हूँ डाक्टर साहब मेरी तबीयत उस तरफ़ नहीं है। कुछ दिनों मुलाज़मत करने के बाद मैं भी देहात की तरफ चलूंगा। गाय-भैसें पालूंगा, कुछ फल-वल पैदा करूँगा। पसीने की कमाई खाऊँगा। मालूम होगा, मैं भी आदमी हूँ। अभी तो खटमलों की तरह दूसरों के खून पर ही ज़िन्दगी कटेगी, लेकिन मैं कितना ही गिर जाऊँ मेरी हमदर्दी गरीबों के साथ रहेगी। मैं दिखा दूंगा कि अफ़सरी करके भी पबलिक की खिदमत की जा सकती है। हम लोग खानदानी किसान हैं। अब्बाजान ने अपने बूते से यह दौलत पैदा की। मुझे जितनी मुहब्बत रिआया से हो सकती है, उतनी उन लोगों को नहीं हो सकती जो खानदानी रईस है। मैं तो कभी अपने गांवों में जाता हूँ, तो मुझे ऐसा मालूम होता है, कि यह लोग मेरे अपने हैं। उनको सादगी और मशक्कत देखकर दिल में उनकी इज्जत होती है। न जाने कैसे लोग उन्हें गालियाँ देते हैं, उन पर जुल्म करते हैं। मेरा बस चले, तो बदमाश अफसरों को कालेपानी भेज दूं।

शांतिकुमार को ऐसा जान पड़ा कि अफ़सरी का जहर अभी इस युवक के खून में नहीं पहुंचा। इसका हृदय अभी तक स्वस्थ है। बोले-जब तक रिआया के हाथ में अख्तियार न होगा, अफसरों की यही हालत रहेगी। तुम्हारी ज़बान से यह खयालात सुनकर मुझे खुशी हो रही है। मुझे तो एक भी भला आदमी कहीं नज़र नहीं आता। गरीबों की लाश पर सब-के-सब गिद्धों की तरह जमा होकर उनकी बोटियाँ नोच रहे हैं। मगर अपने बस की बात नहीं। इसी खयाल से दिल को तस्कीन देना पड़ता है कि जब खुदा की मरज़ी होगी, तो आप ही वैसे सामान हो जायेंगे। इस हाहाकार को बुझाने के लिए दो-चार घड़े पानी डालने से तो आग और भी बढ़ेगी। इनकलाब की ज़रूरत है, पूरे इनक़लाब की। इसलिए जले जितना

कर्मभूमि
२२७