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डाक्टर साहब यहाँ से चले, तो नैना बालक को लिये मोटर से उतर रही थी।

शांतिकुमार ने आहत कण्ठ से कहा-तुम अब चली जाओगी नैना । नैना ने सिर झुका लिया; पर उसकी आँखें सजल थीं।


छः महीने गुज़र गये।

सेवाश्रम का ट्रस्ट बन गया। केवल स्वामी आत्मानन्दजी ने, जो आश्रम के प्रमुख कार्यकर्ता और एक छोर समष्टिवादी थे, इस प्रबन्ध से असन्तुष्ट होकर इस्तीफा दे दिया। वह आश्रम में धनिकों को नहीं घुसने देना चाहते थे। उन्होंने बहुत जोर मारा कि ट्रस्ट न बनने पाये। उनकी राय में धन पर आश्रम की आत्मा को बेचना, आश्रम के लिये घातक होगा । धन ही की प्रभुता से तो हिन्दू समाज ने नीचों को अपना गुलाम बना रखा है, धन ही के कारण तो नीच-ऊँच का भेद आ गया है, उसी धन पर आश्रम की स्वाधीनता क्यों बेची जाय ? लेकिन स्वामीजी की कुछ न चली और ट्रस्ट की स्थापना हो गयी। उसका शिलान्यास रखा सुखदा ने। जलसा हुआ, दावत हुई, गाना-बजाना हुआ। दूसरे दिन शांतिकुमार ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया।

सलीम की परीक्षा भी समाप्त हो गई। और उसने जो पेशीनगोई की थी,वह अक्षरशः पूरी हुई। गज़ट में उसका नाम सबसे नीचे था। शांतिकुमार के विस्मय की सीमा न रही। अब उसे कायदे के मुताबिक दो साल के लिये इंगलैण्ड जाना चाहिए था; पर सलीम इंगलैण्ड न जाना चाहता था। दो-चार महीने के लिए सैर करने तो वह शौक से जा सकता था; पर दो साल तक वहाँ पड़े रहना उसे मंजूर न था। उसे जगह न मिलनी चाहिए थी ; मगर यहाँ भी उसने कुछ ऐसी दौड़-धूप की, कुछ ऐसे हथकण्डे खेले, कि वह इस कायदे से मुस्तसना कर दिया गया। जब सूबे का सब से बड़ा डाक्टर कह रहा है कि इंगलैण्ड की ठण्डी हवा में इस युवक का दो साल रहना खतरे से खाली नहीं, तो फिर कौन इतनी बड़ी जिम्मेदारी

कर्मभूमि
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