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'रोज ही आया चाहें, उनका सत्कार न किया जाय तो काम नहीं चलता। सब समझती होंगी, यह लोग कितने मूर्ख हैं।

सूखदा को इस इक्कीस वर्षवाले युवक की इस निस्संकोच' सांसारिकता पर घृणा हो रही थी। उसकी स्वार्थ-सेवा ने जैसे उसकी सारी कोमल भावनाओं को कुचल डाला था, यहाँ तक कि वह हास्यास्सद हो गयी थी।

इस काम के लिए आपको थोड़े-से वेतन में किरानियों की स्त्रियाँ मिल जायेंगी, जो लेडियों के साथ साहबों का भी सत्कार करेंगी।'

'आप इन व्यापार-सम्बन्धी समस्याओं को नहीं समझ सकतीं। बड़ेबड़े मिलों के एजेन्ट आते हैं। अगर मेरी स्त्री उनसे बातचीत कर सकती, तो कुछ न कुछ कमीशन रेट बढ़ जाता। यह काम तो कुछ औरत ही कर सकती हैं।'

'मैं तो कभी न करूं। चाहे सारा कारोबार जहन्नुम में मिल जाय।'

'विवाह का अर्थ जहाँ तक मैं समझता हूँ, वह यही है कि स्त्री पुरुष की महगामिनी है। अंग्रेजों के यहाँ बराबर स्त्रियाँ सहयोग देती हैं।'

'आप सहगामिनी का अर्थ नहीं समझते।'

मनीराम मुँहफट था। उसके मुसाहिब इसे साफगोई कहते थे। उसका विनोद भी गाली से शुरू होता था और गाली तो गाली थी ही। बोला--

कम से कम आपको इस विषय में मुझे उपदेश करने का अधिकार नहीं। आपने इस शब्द का अर्थ समझा होता, तो इस वक्त आप अपने पति से अलग न होतीं और न वह गली-कूचों की हवा खाते होते।'

सुखदा का मुख-मंडल लज्जा और क्रोध से आरक्त हो उठा। उसने कुरसी से उठकर कठोर स्वर में कहा- मेरे विषय में आपको टीका करने का कोई अधिकार नहीं है, लाला मनीराम! ज़रा भी अधिकार नहीं है। आप अंग्रेजी सभ्यता के बड़े भक्त बनते हैं। क्या आप समझते हैं कि अंग्रेजी पहनावा और सिगार ही उस सभ्यता के मुख्य अंग है? उसका प्रधान अंग है महिलाओं का आदर और सम्मान। वह अभी आपको सीखना बाकी है। कोई कुलीन स्त्री इस तरह आत्म-सम्मान खोना स्वीकार न करेगी।

उसका गर्जन सुनकर सारा घर थर्रा उठा और मनीराम तो जैसे

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कर्मभूमि