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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/२६०

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'वाह, उससे अच्छी और क्या बात होगी? शहर में हजारों आदमी खाँसी और ज्वर में पड़े हुए हैं। उनका कुछ उपकार हो जायगा।'

सहसा लल्लू ने आकर दोनों नावें छीन ली और उन्हें पानी में डालकर तालियांँ बजाने लगा।

नैना ने बालक का चुम्बन लेकर कहा----वहाँ दो-एक बार रोज इसे याद करके रोती थी। न-जाने क्यों बार-बार इसी की याद आती रहती थी।

'अच्छा मेरी याद भी कभी आती थी?'

'कभी नहीं, हाँ भैया की याद बार-बार आती थी और वह इतने निठुर है कि छ: महीने में एक पत्र भी न भेजा! मैंने भी ठान लिया है कि जब तक उनका पत्र न आयेगा, एक खत भी न लिखूँगी।'

तो क्या सचमुच तुम्हें मेरी याद न आती थी? और मैं समझ रही थी, कि तुम मेरे लिए विकल हो रही होगी। आखिर अपने भाई की बहन ही तो हो! आंख की ओट होते ही गायब।'

'मुझे तो तुम्हारे ऊपर क्रोध आता था। इन छ: महीनों में केवल तीन बार गयीं और फिर भी लल्लू को न ले गयीं।'

'यह जाता, तो आने का नाम न लेता।'

'तो क्या मैं इसकी दुश्मन थी?'

'उन लोगों पर मेरा विश्वास नहीं है, मैं क्या करूँ। मेरी तो यही समझ में नहीं आता कि तुम वहाँ कैसे रहती थीं।'

'तो क्या करती, भाग आती? तब भी तो जमाना मुझी को हँसता।'

'अच्छा सच बताना, पतिदेव तुमसे प्रेम करते हैं?'

'वह तो तुम्हें मालूम ही है।'

'मैं तो ऐसे आदमी से एक बार भी न बोलती।'

'मैं भी कभी नहीं बोली।'

'सच! बहुत बिगड़े होंगे। अच्छा सारा वृत्तांत कहो। सोहागरात को क्या हुआ? देखो, तुम्हें मेरी कसम, एक शब्द भी झूठ न कहना।'

नैना माथा सिकोड़कर बोली-भाभी, तुम मुझे दिक करती हो, लेकर कसम रखा दी। जाओ मैं कुछ नहीं बताती।

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कर्मभूमि