को भी जमीन पर सुला दिया। इतने में अरहर के पौधों को चीरता हुआ तीसरा गोरा आ पहुँचा। डाक्टर शान्तिकुमार सँभलकर उस पर लपके ही थे कि उसने रिवालवर निकालकर दाग दिया। डाक्टर साहब जमीन पर गिर पड़े। अब मामला नाजुक था। तीनों छात्र डाक्टर साहब को सँभालने लगे। यह भय लगा कि वह दूसरी गोली न चला दे। सबके प्राण नहों में समाये हुए थे।
मजूर लोग अभी तक तमाशा देख रहे थे। मगर डाक्टर साहब को गिरते देख उनके खून में जोश आ गया। भय की भाँति साहस भी संक्रामक होता है। सब-के-सब अपनी लकड़ियाँ संभालकर गोरे पर दौड़े। गोरे ने रिवाल्वर दागी; पर निशाना खाली गया। इसके पहले कि वह तीसरी गोली चलाये उस पर डण्डों की वर्षा होने लगी और एक क्षण में वह भी आहत होकर गिर पड़ा।
खैरियत यह हुई, कि जख़्म डाक्टर साहब की जाँघ में था। सभी छात्र 'तत्काल धर्म' जानते थे। घाव का खून बन्द किया और पट्टी बाँध दी।
उसी वक़्त एक युवती खेत से निकली और मुँह छिपाये, लँगड़ाती, कपड़े सँभालती, एक तरफ चल पड़ी। अबला लज्जावश, किसी से कुछ कहे बिना सबकी नजरों से दूर निकल जाना चाहती थी। उसकी जिस अमूल्य वस्तु का अपहरण किया गया था, उसे कौन दिला सकता था? दुष्टों को मार डालो, इससे तुम्हारी न्याय-बुद्धि को सन्तोष होगा, उसकी तो जो चीज जानी थी वह गयी। वह अपना दुःख क्यों रोये, क्यों फ़रियाद करे, संसार की सहानुभूति उसके किस काम की है!
सलीम एक क्षण तक युवती की ओर ताकता रहा। फिर स्टिक सँभालकर उन तीनों को पीटने लगा। ऐसा जान पडता था कि उन्मत हो गया है!
डाक्टर साहब ने पुकारा--क्या करते हो सलीम! इससे क्या फायदा? यह इन्सानियत के खिलाफ़ है, कि गिरे हुओं पर हाथ उठाया जाय।
सलीम ने दम लेकर कहा--मैं एक शैतान को भी जिन्दा न छोड़ूँगा। मुझे फाँसी हो जाय, कोई ग़म नहीं। ऐसा सबक देना चाहिए, कि फिर किसी बदमाश को इसकी जुर्रत न हो।
फिर मजदूरों की तरफ़ देखकर बोला--तुम इतने आदमी खड़े ताकते