रहने का विचार किया। इतने में दो साधु भगवान् का ब्यालू बेचते हुए नजर आये। धर्मशाला के सभी यात्री लेने दौड़े। अमर ने भी चार आने की एक पत्तल ली। पूरियाँ, हलवे, तरह-तरह की भाजियाँ, अचार-चटनी, मुरब्बे, मलाई, दही। इतना सामान था कि अच्छे दो खानेवाले तृप्त हो जाते। यहाँ चूल्हा बहुत कम घरों में जलता था। लोग यही पत्तल ले लिया करते थे। दोनों ने खूब पेट-भर खाया और पानी पीकर सोने की तैयारी कर रहे थे कि एक साधु दूध बेचने आया--शयन का दूध ले लो। अमर की इच्छा न थी; पर कुतूहल से उसने दो आने का दूध लिया। पूरा एक सेर था, गाढ़ा, मलाईदार, उसमें से केसर और कस्तूरी की सुगन्ध उड़ रही थी। ऐसा दूध उसने अपने जीवन में कभी न पिया था।
बेचारे बिस्तर तो लाये न थे, आधी-आधी धोतियाँ बिछाकर लेटे।
अमर ने विस्मय से कहा--इस खर्च का कुछ ठिकाना है!
गूदड़ भक्तिभाव से बोला--भगवान् देते हैं और क्या! उन्हीं की महिमा है। हज़ार-दो-हज़ार यात्री नित्य आते हैं। एक-एक सेठिया बीस-बीस हजार की थैली चढ़ाता है। इतना खरचा करने पर भी करोड़ों रुपये बैंक में जमा हैं।
'देखें कल क्या बातें होती हैं।'
'मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि कल भी दर्शन न होंगे।'
दोनों आदमियों ने कुछ रात रहे उठकर स्नान किया और दिन निकलने के पहले ड्योढ़ी पर जा पहुँचे। मालूम हुआ, महन्तजी पूजा पर हैं।
एक घंटा बाद फिर गये तो, सूचना मिली, महन्तजी कलेऊ पर हैं।
जब वह तीसरी बार नौ बजे गया तो मालूम हुआ, महन्तजी घोड़ों का मुआइना कर रहे हैं। अमर ने झुंझलाकर द्वारपाल से कहा--तो आखिर हमें कब दर्शन होंगे?
द्वारपाल ने पूछा--तुम कौन हो?
‘मैं उनके इलाक़े का असामी हूँ। उनके इलाक़े के विषय में कुछ कहने आया हूँ।'
'तो कारकुन के पास जाओ। इलाक़े का काम वही देखते हैं।'