अमर ने खिसियाकर कहा--महीनों में क्यों विचार होगा? चार दिन तो बहुत हैं।
पयाग बोला--यह सब टालने की बातें हैं। खुशी से कौन अपने रूपये छोड़ सकता है?
अमर रोज सबेरे जाता और घड़ी रात गये लौट आता। पर अर्ज़ी पर विचार न होता था। कारकुन, उनके मुहरिरों, यहाँ तक कि चपरासियों को मिन्नत-समाजत करता; पर कोई न सुनता था। रात को वह निराश होकर लौटता तो गाँव के लोग यहाँ उसका परिहास करते।
पयाग कहता--हमने तो सुना था कि रुपये में ।।) छूट हो गयी।
काशी कहता--तुम झूठे हो। मैंने तो सुना था, महन्तजी ने इस साल पूरी लगान माफ कर दी।
उधर आत्मानन्द हलक़े में बराबर जनता को भड़का रहे थे। रोज़ बड़ी-बड़ी किसान-सभाओं की ख़बरें आती थीं। जगह-जगह किसान-सभाएँ बन रही थीं। अमर की पाठशाला भी बन्द पड़ी थी। उसे फ़ुरसत ही न मिलती थी। पढ़ाता कौन। रात को केवल मुन्नी अपनी कोमल सहानुभूति से उसके आँसू पोंछती थी।
आख़िर सातवें दिन उसकी अर्ज़ी पर हुक्म हुआ कि सायल पेश किया जाय। अमर महन्त के सामने लाया गया। दोपहर का समय था। महन्तजी खसखाने में एक तख्त पर मसनद लगाये लेटे हुए थे। चारों तरफ़ खस की टट्टियाँ थीं जिन पर गुलाब की छिड़काव हो रहा था। बिजली के पंखे चल रहे थे। अन्दर इस जेठ के महीने में भी इतनी ठंडक थी, कि अमर को सर्दी लगने लगी।
महन्तजी के मुख-मंडल पर दया झलक रही थी। हुक्के का एक क़श खींचकर मधुर स्वर में बोले--तुम इलाके ही में रहते हो न? मुझे यह सुनकर बड़ा दुःख हुआ कि मेरे असामियों को इस समय कष्ट है। क्या सचमुच उनकी दशा यही है, जो तुमने अर्ज़ी में लिखी है?
अमर ने प्रोत्साहित होकर कहा--महाराज, उनकी दशा इससे कहीं ख़राब है। कितने ही घरों में चूल्हा नहीं जलता।
महन्त ने आँखें बन्द करके कहा--भगवान्! यह तुम्हारी क्या लीला
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