जैसे छलक उठा। बोली---मैं तो यहाँ बड़ आराम से हूँ: पर आप क्यों इतने दुबले हो गये हैं?
'यह न पूछो, यह पूछो कि आप जीते कैसे हैं। नैना भी चली गयी, अब घर भूतों का डेरा हो गया है। सुनता हूँ, लाला मनीराम अपने पिता से अलग होकर दूसरा विवाह करने जा रहे हैं। तुम्हारी माताजी तीर्थयात्रा करने चली गयीं। शहर में आन्दोलन चला जा रहा है। उस ज़मीन पर दिन-भर जनता की भीड़ लगी रहती है। कुछ लोग रात को वहाँ सोते हैं। एक दिन तो रातो-रात वहाँ सैकड़ों झोंपड़े खड़े हो गये; लेकिन दूसरे दिन पुलिस ने उन्हें जला दिया और कई चौधरियों को पकड़ लिया।'
सुखदा ने मन-ही-मन हर्षित होकर पूछा---यह लोगों ने क्या नादानी की। वहाँ अब कोठियाँ बनने लगी होंगी?
समरकान्त बोले---हाँ, ईंटें, चूना, सुर्खी जमा की गयी थी; लेकिन एक दिन रातो-रात सारा सामान उड़ गया। ईटें बिखेर दी गयीं, चूना मिट्टी में मिला दिया गया। तबसे वहाँ किसी को मजूर ही नहीं मिलते। न कोई बेलदार जाता है, न कारीगर। रात को पुलिस का पहरा रहता है। वही बुढ़िया पठानिन आजकल वहाँ सब कुछ कर-धर रही है। ऐसा संगठन कर लिया है कि आश्चर्य होता है।
जिस काम में वह असफल हुई, उसे वह खप्पट बुढ़िया सुचारु रूप से चला रही है, इस विचार से उसके आत्माभिमान को चोट लगी। बोली--वह बुढ़िया तो चल-फिर भी न पाती थी!
'हाँ, वही बुढ़िया अच्छे-अच्छों के दाँत खट्टे कर रही है। जनता को तो उसने ऐसा मुट्ठी में कर लिया है कि क्या कहूँ। भीतर बैठे हुए कल घुमानेवाले शांति बाबू है।'
सुखदा ने आजतक उनसे या किसी से, अमरकान्त के विषय में कुछ न पूछा था; पर इस वक्त वह मन को न रोक सकी--हरिद्वार से कोई पत्र आया था?
लाला समरकान्त की मुद्रा कठोर हो गयी। बोले---हाँ, आया था। उसी शोहदे सलीम का ख़त था। वही उस इलाके का मालिक है। उसने भी पकड़-धकड़ शुरू कर दी है। उसने खुद लालाजी को गिरफ्तार किया।