बालक कमरे के बाहर निकल गया था। लालाजी ने उसे पुकारा, तो वह सड़क की ओर भागा। समरकान्त भी उसके पीछे दौड़े। बालक ने समझा, खेल हो रहा है। और तेज दौड़ा। ढाई-तीन साल के बालक की तेजी ही क्या, किन्तु समरकान्त जैसे स्थूल आदमी के लिए पूरी करसत थी। बड़ी मुश्किल से उसे पकड़ा।
एक मिनट के बाद कुछ इस भाव से बोले, जैसे कोई सारगर्भित कथन हो---मैं तो सोचता हूँ, जो लोग जाति-हित के लिए अपनी जान होम करने को हरदम तैयार रहते हैं, उनकी बुराइयों पर निगाह ही न डालनी चाहिए।
सुखदा ने विरोध किया---यह न कहिये दादा! ऐसे मनुष्यों का चरित्र आदर्श होना चाहिए; नहीं, उनके परोपकार में स्वार्थ और वासना की गन्ध आने लगेगी।
समरकान्त ने तत्वज्ञान की बात कही--स्वार्थ मैं उसी को कहता हूँ, जिसके मिलने से चित को हर्ष और न मिलने से क्षोभ हो? ऐसा प्राणी, जिसे हर्ष और क्षोभ हो ही नहीं, मनुष्य नहीं, देवता भी नहीं, जड़ है।
सुखदा मुसकराई---तो संसार में कोई निःस्वार्थ हो ही नहीं सकता?
'असंभव। स्वार्थ छोटा हो, तो स्वार्थ है; बड़ा हो, तो उपकार है। मेरा तो विचार है, ईश्वर-भक्ति भी स्वार्थ है।'
मुलाकात का समय गुजर चुका था। मेट्रन अब और रिआयत न कर सकती थी। समरकान्त ने बालक को प्यार किया, बहू को आशीर्वाद दिया और बाहर निकाले।
बहुत दिनों के बाद आज उन्हें अपने भीतर आनन्द और प्रकाश का अनुभव हुआ, मानो चन्द्रदेव के मुख से मेघों का आवरण हट गया हो।
२
सुखदा अपने कमरे में पहुँची, तो देखा--एक युवती कैदियों के कपड़े पहने उसके कमरे की सफाई कर रही है। एक चौकीदारिन बीच-बीच में उसे डाँटती जाती है।