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उसे अपने साथ रखने में कोई आपत्ति न होगी, और होगी तो मैं अपने पास रख लूँगी।'

अमरकान्त ने श्रद्धापूर्ण नेत्रों से सुखदा को देखा। इसके हृदय में कितनी दया, कितना सेवा-भाव, कितनी निर्भीकता है। इसका आज उसे पहली बार ज्ञान हुआ।

उसने पूछा--तुम्हें उससे जरा भी घृणा न होगी ?

सुखदा ने सकुचाते हुए कहा--अगर मैं कहूँ, न होगी, तो असत्य होगा। होगी अवश्य; पर संस्कारों को मिटाना होगा। उसने कोई अपराध नहीं किया, फिर सजा क्यों दी जाय ?


अमरकान्त ने देखा सूखदा निर्मल नारीत्व की ज्योति में नहा उठी है। उसका देवीत्व जैसे प्रस्फुटित होकर उससे आलिंगन कर रहा है।

अमरकान्त ने आम जलसों में बोलना तो दूर रहा, शरीक होना भी छोड़ दिया; पर उसकी आत्मा इस बन्धन से छटपटाती रहती थी और वह कभी-कभी सामयिक पत्र-पत्रिकाओं में अपने मनोद्गारों को प्रकट करके संतोष लाभ करता था। अब वह कभी-कभी दुकान पर भी आ बैठता। विशेषतः छुट्टियों के दिन तो वह अधिकतर दुकान पर रहता था। उसे अनुभव हो रहा था, कि मानवी-प्रकृति का बहुत कुछ ज्ञान दुकान पर बैठकर प्राप्त किया जा सकता है। सुखदा और रेणुका दोनों के स्नेह और प्रेम ने उसे जकड़ लिया था। हृदय की जलन जो पहले घरवालों से, और उसके फलस्वरूप, समाज से विद्रोह करने में अपने को सार्थक समझती थी, अब शान्त हो गयी थी। रोला हुआ बालक मिठाई पाकर रोना भूल गया था।

एक दिन अमरकान्त दुकान पर बैठा था कि एक असामी ने आकर पूछा--भैया कहाँ हैं बाबूजी, बड़ा जरूरी काम था।

अमर ने देखा--अधेड़, बलिष्ट, काला, कठोर आकृति का मनुष्य है। नाम है काले खाँ। रुखाई से बोला--वह कहीं गये हुए हैं ?

'बड़ा जरूरी काम था। कुछ कह नहीं गये, कब तक आयेंगे ?'

कर्मभूमि
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