पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/३५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

साँच कहो तो मारन धावे, झूठे जग पतियाना, सन्तो देखत..

मनोव्यथा जब असह्य और अपार हो जाती है, तब उसे कहीं प्राण नहीं मिलता; जब वह रुदन और क्रंदन की गोद में भी आश्रय नहीं पाती, तो वह संगीत के चरणों पर जा गिरती है।

समरकान्त ने पुकारा---भाभी, जरा बाहर तो आओ!

सलोनी चट-पट उठकर पके बालों को घूंघट से छिपाती, नवयौवना की भाँति लजाती आकर खड़ी हो गयी और पूछा--तुम कहाँ चले गये थे, देवरजी?

सहसा सलीम को देखकर वह एक पग पीछे हट गयी और जैसे गाली दी--यह तो हाकिम है।

फिर सिंहनी की भाँति झपटकर उसने सलीम को ऐसा धक्का दिया कि वह गिरते-गिरते बचा और जब तक समरकान्त उसे हटायें हटायें, सलीम की गरदन पकड़कर इस तरह दबाई, मानो घोंट देगी।

सेठजी ने उसे बल-पूर्वक हटाकर कहा--पगला गयी है क्या भाभी, अलग हट जा, सुनती नहीं?

सलोनी ने फटी-फटी, प्रज्वलित आँखों से सलीम को घूरते हुए कहा--मार तो दिखा दूँ आज मेरा सिरदार आ गया है! सिर कुचलकर रख देगा!

समरकान्त ने तिरस्कार-भरे स्वर में कहा--सिरदार के मुंह में कालिख लगा रही हो और क्या। बूढ़ी हो गयीं, मरने के दिन आ गये और अभी लड़कपन नहीं गया! यही तुम्हारा धर्म है कि कोई हाकिम द्वार पर आये तो उसका अपमान करो?

सलोनी ने मन में कहा--यह लाला भी ठाकुर सुहाती करते हैं। लड़का पकड़ गया है न, इसी से। फिर दुराग्रह से बोली---पूछो, इसने सबको पीटा नहीं था?

सेठजी बिगड़कर बोले--तुम हाकिम होती और गाँववाले तुम्हें देखते ही लाठियाँ ले-लेकर निकल आते, तो तुम क्या करतीं? जब प्रजा लड़ने पर तैयार हो जाय, तो हाकिम क्या उसकी पूजा करे! अमर होता, तो वह लाठी लेकर न दौड़ता। गाँववालों को लाजिम था कि हाकिम के पास आकर अपना-अपना हाल कहते, अरज-बिनती करते; अदब से, नम्रता से।

३५०
कर्मभूमी