अमर ने अपने संगी से कहा--जरा ठहर जाओ भाई, दम ले लूँ, मेरे हाथ नहीं चलते। क्या नाम है तुम्हारा? मैंने तो शायद तुम्हें कहीं देखा है!
संगी, गठीला, काला, लाल आँखवाला, कठोर आकृति का मनुष्य था, जो परिश्रम से थकना न जानता था। मुसकरा कर बोला--मैं वही काले खाँ हूँ, जो एक बार तुम्हारे पास सोने के कड़े बेचने गया था। याद करो। लेकिन तुम यहाँ कैसे आ फँसे, मुझे यह ताज्जुब हो रहा है। परसों से ही पूछना चाहता था; पर सोचता था, कहीं धोखा न हो रहा हो।
अमर ने अपनी कथा संक्षेप में कह सुनाई और पूछा--तुम कैसे आये?
काले खाँ हँसकर बोला---मेरी क्या पूछते हो लाला, यहाँ तो छ: महीने बाहर रहते हैं, तो छ: साल भीतर। अब तो यही आरजू है कि अल्लाह यहीं से बुला ले। मेरे लिये बाहर रहना मसीबत है। सबको अच्छा-अच्छा पहनते, अच्छा-अच्छा खाते देखता हूँ, तो हसद होती है; पर मिले कहाँ से। कोई हुनर आता नहीं, इलम है नहीं। चोरी न करूँ, डाका न मारूँ, तो खाऊँ क्या? यहाँ किसी से हसद नहीं होती, न किसी को अच्छा पहनते देखता हूँ, न अच्छा खाते। सब अपने जैसे हैं, फिर डाह और जलन क्यों हो। इसलिये अल्लाहताला से दुआ करता हूँ कि यहीं से बुला ले। छूटने की आरजू नहीं है। तुम्हारे हाथ दुख गये हों, तो रहने दो। मैं अकेला ही पीस डालूँगा। तुम्हें इन लोगों ने यह काम दिया ही क्यों? तुम्हारे भाई-बन्द तो हम लोगों से अलग आराम से रखे जाते हैं। तुम्हें यहाँ क्यों डाल दिया? हट जाओ।
अमर ने चक्की की मुठिया जोर से पकड़कर कहा---नहीं-नहीं, मैं थका नहीं हूँ। दो-चार दिन में आदत पड़ जायगी, तो तुम्हारे बराबर काम करूँगा।
काले खाँ ने उसे पीछे हटाते हुए कहा---मगर यह तो अच्छा नहीं लगता कि तुम मेरे साथ चक्की पीसो। तुमने कोई जुर्म नहीं किया है। रिआया के पीछे सरकार से लड़े हो, तुम्हें मैं न पीसने दूँगा। मालूम होता है कि तुम्हारे लिए ही अल्लाह ने मुझे यहाँ भेजा है। वह तो बड़ा कारसाज़ है। उसकी कुदरत कुछ समझ में नहीं आती। आप ही आदमी से बुराई