कुछ कुछ परिचित तो था; पर उनका इतना पतन हो गया है, इसका प्रमाणा आज ही मिला। उसने मन में निश्चय किया, आज पिता से इस विषय में खूब अच्छी तरह शास्त्रार्थ करेगा। उसने खड़े होकर अधीर नेत्रों से सड़क की ओर देखा। लालाजी का पता नहीं था। उसके मन में आया, दकान बन्द करके चला जाय और जब पिता जी आ जायँ तो साफ़-साफ़ कह दे, मुझसे यह व्यापार न होगा। वह दुकान बन्द करने ही जा रहा था, कि एक बुढ़िया लाठी टेकती हुई आकर सामने खड़ी हो गयी और बोली--लाला नहीं हैं क्या बेटा ?
बुढ़िया के बाल सन हो गये थे। देह की हड्डियाँ तक सूख गयी थीं; जीवन-यात्रा के उस स्थान पर पहुँच गयी थी, जहाँ से उसका आकार मात्र दिखाई देता था, मानों दो-एक क्षण में वह अदृश्य हो जायगी।
अमरकान्त के जी में पहले तो आया कि कह दे, दादा नहीं है, वह आयें तब आना, लेकिन बुढ़िया के पिचके हुए मुख पर ऐसी करुण-याचना, ऐसी शून्य-निराशा छाई थी कि उसे उस पर दया आ गयी। बोला--लालाजी से क्या काम है ? वह तो कहीं गये हुए हैं।
बुढ़िया ने निराश होकर कहा--तो कोई हरज नहीं बेटा, मैं फिर आ जाऊँगी।
अमरकान्त ने नम्रता से कहा--अब आते ही होंगे, माता। ऊपर चली आओ।
दुकान की कुरसी ऊँची थी। तीन सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती थीं। बुढ़िया ने पहली पट्टी पर पाँव रखा; पर दूसरा पाँव ऊपर न उठा सकी। पैरों में इतनी शक्ति न थी। अमर ने नीचे आकर उसका हाथ पकड़ लिया और उसे सहारा देकर दूकान पर चढ़ा दिया। बुढ़िया ने आशीर्वाद देते हुए कहा--तुम्हारी बड़ी उम्र हो बेटा, मैं यही डरती हूँ कि लाला देर में आये और अँधेरा हो गया, तो मैं घर कैसे पहुँचूँगी। रात को कुछ नहीं सूझता बेटा।
'तुम्हारा घर कहाँ है माता ?'
बुढ़िया ने ज्योतिहीन आँखों से उसके मुख की ओर देखकर कहा--गोबर्धन की सराय पर रहती हूँ बेटा !
'तुम्हारे और कोई नहीं है ?'