'सब है भैया, बेटे हैं, बहुएँ हैं, पोतों की बहुएँ हैं; पर जब अपना कोई नहीं, तो किस काम का। नहीं लेते मेरी सुध, न सही। हैं तो अपने। मर जाऊँगी, तो मिट्टी तो ठिकाने लगा देंगे।'
'तो वह लोग तुम्हें कुछ देते नहीं ?'
बुढ़िया ने स्नेह मिले हुए गर्व से कहा--मैं किसी के आसरे भरोसे नहीं हूँ बेटा, जीते रहें मेरे लाला समरकान्त, वह मेरी परवरिश करते हैं। तब तो तुम बहुत छोटे थे भैया, जब मेरा सरदार लाला का चपरासी था। इसी कमाई में खुदा ने कुछ ऐसी बरक्कत दी, कि घर-द्वार बना, बाल-बच्चों का व्याह-गौना हआ, चार पैसे हाथ में हए। थे तो पाँच रुपये के प्यादे, पर कभी किसी के सामने गरदन नहीं झुकायी। जहाँ लाला का पसीना गिरे वहाँ अपना खून बहाने को तैयार रहते थे। आधी रात, पिछली रात, जब बुलाया, हाजिर हो गये। थे तो अदना से नौकर, मुदा लाला ने कभी 'तुम' कहकर नहीं पुकारा। बराबर खां साहब कहते थे। बड़े-बड़े सेठिए कहते खां साहब, हम इससे दूनी तलब देंगे, हमारे पास आ जाओ; पर सबको यही जवाब देते, कि जिसके हो गये, उसके हो गये। जब तक वह दुत्कार न देगा, उसका दामन न छोड़ेंगे। लाला ने भी ऐसा निभाया, कि क्या कोई निभायेगा। उन्हें मरे आज बीसवां साल है, वही तलब मुझे देते जाते हैं। लड़के पराये हो गये, पोते बात नहीं पूछते; पर अल्लाह मेरे लाला को सलामत रखे, मुझे किसी के सामने हाथ फैलाने की नौबत नहीं आयी।
अमरकान्त ने अपने पिता को स्वार्थी, लोभी, भावहीन समझ रखा था। आज उसे मालूम हुआ उनमें दया और वात्सल्य भी है। गर्व से उसका हृदय पुलकित हो उठा। बोला--तो तुम्हें पांच रुपये मिलते हैं ?
'हां बेटा, पांच रुपये महीना देते जाते हैं।'
'तो मैं तुम्हें रुपये दिये देता हूँ, लेती जाओ। लाला शायद देर में आयें।'
वृद्धा ने कानों पर हाथ रखकर कहा--नहीं बेटा, उन्हें आ जाने दो। लठिया टेकती चली जाऊँगी। अब तो यही आंख रह गयी है।
'इसमें हरज क्या है, मैं उनसे कह दूँगा, पठानिन रुपये ले गयीं। अंधेरे में कहीं गिर-गिरा पड़ोगी।'