सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/४००

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

संवाद भी पहुँचा। सुखदा सिर झुकाये मूर्तिवत् बैठी रह गयी, मानो अचेत हो गयी हो। कितनी महँगी विजय थी!

रेणका ने लम्बी साँस लेकर कहा--दुनिया में ऐसे-ऐसे आदमी भी पड़े हए है, जो स्वार्थ के लिये अपनी स्त्री की हत्या कर सकते है!

सुखदा आवेश में आकर बोली--नैना की उसने हत्या नहीं की अम्मा, यह विजय उसी देवी के प्राणों का वरदान है।

पठानिन ने आँसू पोंछते हुए कहा--मुझे तो यही रोना आता है कि भैया को कितना दु:ख होगा। भाई बहन में इतनी मोहब्बत मैंने नहीं देखी।

जेलर ने आकर सूचना दी, आप लोग तैयार हो जायँ। शाम की गाड़ी से सुखदा, रेणुका और पठानिन इन महिलाओं को जाना है। देखिये, हम लोगों से जो खता हुई हो उसे मुआफ़ कीजियेगा।

किसी ने इसका जवाब न दिया, मानो किसी ने सुना ही नहीं। घर जाने में अब आनन्द न था। विजय का आनन्द भी इस शोक में डूब गया था।

सकीना ने सुखदा के कान में कहा--जाने के पहले बाबूजी से मिल लीजियेगा। यह खबर सुनकर न जाने दुश्मनों पर क्या गुज़रे। मुझे तो डर लग रहा है।

बालक रेणुकान्त सामने सहन में कीचड़ से फिसलकर गिर गया था और पैरों से ज़मीन को इस शरारत की सज़ा दे रहा था। साथ ही साथ रोता भी जाता था। सकीना और सुखदा दोनों उसे उठाने दौड़ी, और वृक्ष के नीचे खड़ी होकर उसे चुप कराने लगीं।

सकीना कल सुबह आयी थी; पर अब तक सुखदा और उसमें मामूली शिष्टाचार के सिवा और कोई बात न हुई थी। सकीना उससे बातें करते झेंपती थी कि कहीं वह गुप्त प्रसंग न उठ खड़ा हो। और सुखदा इस तरह उससे आँखें चुराती थी, मानो अभी उसकी तपस्या उस कलंक को धोने के लिए काफ़ी नहीं हुई।

सकीना की सलाह में जो सहृदयता भरी थी, उसने सुखदा को पराभूत कर दिया। बोली--हाँ, विचार तो है। तुम्हारा भी कोई संदेशा कहना है?

सकीना ने आँखों में आँसू भरकर कहा---मैं क्या सन्देशा कहूँगी?

३९६
कर्मभूमि