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कर दिखाना कठिन होता है। चोटी का पसीना एड़ी तक आता है, तब चार गंडे पैसे मिलते हैं। मजूरी करेंगे! एक घड़ा पानी तो अपने हाथों खींचा नहीं जाता, चार पैसे की भाजी लेनी होती है, तो नौकर लेकर चलते हैं, यह मजूरी करेंगे ! अपने भाग्य को सराहो, कि मैंने कमाकर रख दिया है। तुम्हारा किया कुछ न होगा। तुम्हारी इन बातों से ऐसा जी जलता है, कि सारी जायदाद कृष्णार्पण कर दूँ। फिर देखूं तुम्हारी आत्मा किधर जाती है।

अमरकान्त पर उनकी इस चोट का भी कोई असर न हुआ--आप खुशी से अपनी जायदाद कृष्णार्पण कर दें। मेरे लिए रत्ती भर चिन्ता न करें। जिस दिन आप यह पुनीत कार्य करेंगे, उस दिन मेरा सौभाग्य सूर्य उदय होगा और मैं इस मोह से मुक्त होकर स्वाधीन हो जाऊँगा। जब तक मैं इस बन्धन में पड़ा रहूँगा, मेरी आत्मा का विकास न होगा।

समरकान्त के पास अब कोई शस्त्र न था। एक क्षण के लिए क्रोध ने उनकी व्यवहार-बुद्धि को भ्रष्ट कर दिया। बोले--तो क्यों इस बन्धन में पड़े हो? क्यों अपनी आत्मा का विकास नहीं करते? महात्मा हो जाओ ! कुछ करके दिखाओ तो ! जिस चीज की तुम क़दर नहीं कर सकते, वह मैं तुम्हारे गले नहीं मढ़ना चाहता।

यह कहते हुए वह ठाकुरद्वारे चले गये, जहाँ इस समय आरती का घंटा बज रहा था। अमर इस चुनौती का जबाब न दे सका। वे शब्द जो बाहर न निकल सके, उसके हृदय में फोड़े की तरह टपकने लगे--मुझ पर अपनी सम्पत्ति की धौंस जमाने चले हैं? चोरी का माल बेचकर, जुआरियों को चार आने रुपये ब्याज पर रुपये देकर, गरीब मजूरों और किसानों को ठगकर तो रुपये जोड़े हैं, उस पर आपको इतना अभिमान है ! ईश्वर न करे, कि मैं उस धन का गुलाम बनूं।

वह इन्हीं उत्तेजना से भरे हुए विचारों में डूबा बैठा था, कि नैना ने आकर कहा--दादा बिगड़ रहे थे भैया ?

अमरकान्त के एकान्त जीवन में नैना ही स्नेह और सान्त्वना की वस्तु थी। अपना सुख-दुख, अपनी विजय और पराजय, अपने मंसूबे और इरादे वह उसी से कहा करता था। यद्यपि सुखदा से अब उसे इतना विराग न था, नहीं, उससे उसे प्रेम भी हो गया था, पर नैना अब भी सबसे निकटतर थी।

कर्मभूमि
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