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जायगा। उसने अपने मन को टटोलकर देखा, इस प्रकार के सन्देह का कोई कारण है ! उसका मन स्वच्छ था। वहाँ किसी प्रकार की कुत्सित भावना न थी। फिर भी सकीना से मिलना बन्द हो जाने की संभावना उसके लिए असह्य थी। उसका शासित, दलित पुरुषत्व यहाँ अपने प्रकृत रूप में प्रकट हो सकता था। सुखदा की प्रतिभा, प्रगल्भता और स्वतंत्रता, उसके सिर पर सवार रहती थी। वह जैसे उसके सामने अपने को दबाये रखने पर मजबूर था। आत्मा में जो एक प्रकार के विकास और व्यक्तीकरण की आकांक्षा होती है, वह अपूर्ण रहती थी, सुखदा उसे पराभूत कर देती थी, सकीना उसे गौरवान्वित करती थी। सुखदा उसका दफ्तर थी, सकीना घर। वहाँ वह दास था, यहाँ स्वामी।

उसने साड़ियाँ उठा ली और व्यथित कण्ठ से बोला--अगर यह बात है,तो मैं इन साड़ियों को लिये जाता हूँ सकीना; लेकिन मैं कह नहीं सकता, मझे इससे कितना रंज होगा। रहा मेरा आना-जाना, अगर तुम्हारी इच्छा है कि मैं न आऊँ, तो मैं भूलकर भी न आऊँगा; लेकिन पड़ोसियों की मुझे परवाह नहीं है।

सकीना ने करूण स्वर में कहा--बाबूजी, मैं आपके हाथ जोड़ती हूँ, ऐसी बात मुंह से न निकालिए। जब से आप आने-जाने लगे हैं, मेरे लिए दुनिया कुछ और हो गयी हैं। मैं अपने दिल में एक ऐसी ताक़त, ऐसी उमंग पाती हूँ, जिसे एक तरह का नशा कह सकती हूँ, लेकिन बदगोई से तो डरना ही पड़ता है।

अमर न उन्मत्त होकर कहा-मैं बदगोई से नहीं डरता सकीना, रत्ती भर भी नहीं।

लेकिन एक ही पल में वह समझ गया--मैं कुछ बहका जाता हूँ। बोला--मगर तुम ठीक कहती हो। दुनिया और चाहे कुछ न करे, बदनाम तो कर ही सकती है।

दोनों एक मिनट तक शान्त बैठे रहे, तब अमर ने कहा--और रूमाल बना लेना। कपड़ों का प्रबन्ध भी हो रहा है। अच्छा अब चलूँगा। लाओ साड़ियाँ लेता जाऊँ।

सकीना अमर की मुद्रा देखी। मालूम होता था, रोना ही चाहता है।

कर्मभूमि
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