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राजा टोडरमल
 


लेखकों ने उसे अभिमानी और घमण्डी लिखा है। पर ध्यान रहे कि नियमनिष्ठ लोग अकसर स्वार्थी जनों की झूठी तुहमतों के शिकार हो जाते हैं। यह टोडरमल की सौम्य-वृत्ति और विवेकशीलता ही थी, जिससे वह अपनी इज्जत आबरू सम्हाले रहा। नहीं तो दरबार के प्रभावशाली व्यक्तियों ने तो उसकी बुराई करने में कोई कसर न रखी थी।

टोडरमल को घमण्डी कहना वस्तुस्थिति पर धूल डालना है, बंगाल में उसने ७ साल तक असि-संचालन किया और यद्यपि सारी सेना उसकी भृकुटी के सकेत पर चलती थी, पर उसने कभी सेनापतित्व की दावा न किया। उसने अपने को ऊँचा करना सीखा ही न था और अकबर जैसा गुण-पारखी मालिक उसको न मिल जाता तो किरानी का पद ही उसकी उन्नति का शिखर बनकर रह जाता। इस नम्रता के साथ प्रकृति में स्वाधीनता भी ऐसी थी कि बंगाल में मुनइम खाँ खान खानाँ ने जब दाऊद खाँ से सुलह भी की, तो टोडरमल ने उसका विरोध किया। और अपनी बात पर ऐसा अड़ा कि संधिपत्र पर मुहर तक न की। इसी स्वाधीनता-प्रियता को जलन रखनेवालों की संकीर्णता ने घमंड और अहंकार का रूप दे दिया। इस स्वातंत्र्य-प्रियता के साथ स्पष्टभाषिता का गुण भी उसे काफ़ी मिला था। बादशाह के मुँह पर भी सच बात कहने से न चूकता। सैकड़ों लम्बी दाढ़ीवाले मुल्ला दरबार की हवा में आकर नास्तिकता की घोषणा करने लगे थे, पर टोडरमल अन्त समय तक कट्टर धर्मनिष्ठ हिन्दू बना रहा। जब तक ठाकुरजी की पूजा न कर लेता, अन्न मुँह में न डालता। इससे बढ़कर स्वतन्त्र विचार का होने का और क्या प्रमाण हो सकता है।