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राणा प्रताप
 


गये हैं, पर हमारा एक भाई अभी तक स्वाधीन राजत्व का डंका बजा रहा है। और क्या आश्चर्य कि कभी-कभी अपने दिलों में इतने सहज में वश्यता स्वीकार लेने पर लज्जा भी अनुभव करते हो। इनमें बीकानेर नरेश का छोटा भाई पृथ्वीसिह भी था जो बड़ा तलवार का धनी और शूरवीर था। राणा के प्रति उसके हृदय में सच्ची श्रद्धा उत्पन्न हो गई थी, उसने जो यह खबर सुनी तो विश्वास न हुआ। पर राणा की लिखावट देखी तो दिल को गहरी चोट पहुँची, ख़ानखाना की तरह वह भी न केवल तलवार का धनी था, बल्कि सहृदय कवि भी था और वीर-रस के छन्द रचा करता था। उसने अकबर से राणा के पास पत्र भेजने की अनुमति प्राप्त कर ली। इस बहाने से कि मैं उसके अधीनता स्वीकार के समाचार की प्रामाणिकता की जाँच करूँगा। पर उस पत्र में उसने अपना हृदय निकालकर रख दिया। ऐसे-ऐसे वीर-रस भरे, ओजस्वी और उत्साह-वर्द्धक पद्य लिखे कि राणा के दिल पर वीर-विरुदावली का काम कर गये। उसके दबे हुए हौसलों ने फिर सिर उभारा, आज़ादी का जोश फिर मचल उठा और अधीनतास्वीकार का विचार कपूर की तरह मन से उड़ गया।

पर अबकी बार उसके विचारों ने कुछ और ही रूप ग्रहण किया। बार-बार की हार और विफलता ने उस पर साबित कर दिया कि इने-गिने साथियों और पुराने जंग खाये हुए हथियारों से अकबरी प्रताप के प्रवाह को रोकना अति कठिन ही नहीं; किन्तु असंभव है, अतः क्यों न उस देश को जहाँ से स्वाधीनता सदा के लिए चली गई, अन्तिम नमस्कार करके किसी ऐसे स्थान पर सिसौदिया कुल का केसरिया झण्डा गाड़ा जाय, जहाँ उसके झुकने का कोई डर ही न हो। बहुत बहस मुबाहसे के बाद यह सलाह तै पाई कि सिंधुनद के तट पर जहाँ पहुँचने में शत्रु को एक रेगिस्तान पार करना पड़ेगा, नया राज्य स्थापित किया जाय। कैसा विशाल हृदय और कितनी ऊँची हिम्मत थी कि इतनी पराजयों के बाद भी ऐसे ऊँचे इरादे दिल में पैदा होते थे। यह विचार पक्का करके राणा अपने कुटुम्बियों और बचे-खुचे साथियों को