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बद्रुद्दीन तैयबजी
 

पंचायत ही सजा दे सकती है। हिन्दुस्तान में अंग्रेजों की अच्छी खासी आबादी है, पर कोई अंग्रेज कितना ही बड़ा अपराध क्यों न करे, कोई हिन्दुस्तानी हाकिम उसके अभियोग का विचार नहीं कर सकता। जब कोई अंग्रेज किसी अपराध में अभियुक्त होता था, तो अंग्रेजों की एक पंचायत इसका मुक़दमा सुनने के लिए नियुक्त की जाती थी और मुक़दमे का एक फ्ररीक़ जब हिन्दुस्तानी होता था, तो अकसर यह पंचायत अभियुक्त की तरफदारी किया करती थी और हिन्दुस्तानियों के साथ अन्याय हो जाता था। इसके सिवा यह एक जातिगत भेद-भाव था जिसे भारतीय अपना अपमान समझते थे। वह कहते थे, अब हम एक देश के निवासी और एक राज्य की प्रजा हैं तो सबके लिए एक क़ानून होना चाहिए। उनमे किसी प्रकार की भेद-दृष्टि रखना उचित नहीं। लार्ड रिपन ने इस मॉग को न्याय-संगत माना और उनके संकेत से कोंसिल के एक सदस्य सर कोर्टनी अलबर्ट ने यह बिल पेश किया तथा सरकार ने उसे स्वीकार कर लिया। पर अंग्रेजों को यह कब सहन हो सकता था कि वह अपने विशेष अधिकारों से वञ्चित हो जायँ। वह अपने को इस देश की शासक समझते थे और भारतवासियों को तिरस्कार की दृष्टि से देखते थे। उनका दावा था कि हम सभ्यता में, जाति में, वर्ण (रङ्ग) में भारत में बसनेवालों से ऊँचे हैं और इनके शासक हैं। लार्ड रिपन के विरुद्ध उन्होंने जबर्दस्त आन्दोलन उठाया। अंग्रेजी अखबारों में विरोध के लेख निकलने लगे। भाषणों में लार्ड रिपन पर खुली चोटें की जाने लगीं। अंग्रेजों ने सरकारी जलसों और दावतों में शरीक होना भी बन्द कर दिया। यहाँ तक कि कुछ लोगों ने यह कुचक्र रच डाला कि लार्ड रिपन को पकड़कर जबरदस्ती जहाज पर सवार कराके लंदन रवाना कर दिया जाय। अन्त में लार्ड रिपन को विवश हो इस क़ानून में संशोधन करना पड़ा जिससे उसका उद्देश्य ही एक प्रकार से नष्ट हो गया।

मिस्टर बद्रुद्दीन ने उस समय के राजनीतिक कार्यों में क्रियात्मक

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