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बद्रुद्दीन तैयबजी
 


हुए भी मिस्टर बद्रुद्दीन अलीगढ़ कालिज की सदा सहायता करते रहे।

१९०३ ई० में जब अडीगढ़ में मुसलिम शिक्षा-सम्मेलन हुआ तो मिस्टर बद्रुद्दीन उसके सभापति चुने गये। इस सम्मेलन में परलोक गत नेवा मुहसीनुलमुल्क और बम्बई के गवर्नर लार्ड बेलिंगटन भी उपस्थित थे, और यद्यपि मिस्टर बद्रुद्नदी उस समय बम्बई हाई- कोर्ट के जज और सरकारी नौकर थे, फिर भी अत्यंत निर्भीकता तथा स्पष्टवादिता के साथ अपने राजनीतिक विचार प्रकट किये और मुसलमानों को सलाह दी कि अगर वह अपने देश की भलाई चाहते हों, तो उन्हें कांग्रेस में सम्मिलित होकर उसका प्रभाव और प्रतिष्ठा बढ़ानी चाहिए। इस भाषण में अपने स्त्री-शिक्षा के सम्बन्ध में भी जोरदार अपील की। आपका निश्चित मत था कि भारत में जब तक पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियों को भी शिक्षा न दी जायगी, देश उन्नति के सोपान पर न चढ़ सकेगा। उन्होंने खुद अपनी लड़कियों को ऊँचे दरजे की अंग्रेजी शिक्षा दिलाई थी, यद्यपि मुसलमानों में उस समय तक यह एक असाधारण साहस का कार्य था।

मिस्टर बद्रुद्दीन परदे के भी विरोधी थे और अपने घर की स्त्रियों को इस बंधन से मुक्त कर दिया था। उनका विचार था कि परदे से शरीरिक और मानसिक स्वास होता है। आज सुशिक्षित मुसलमानों में परदे का बन्धन उतना कठोर नहीं है। लाहौर, देहली आदि नगरों में शरीफज़ादियाँ बुरक़ा ओढे निस्संकोच बाहर निकलती हैं, पर उस समय प्रतिष्ठित महिलाओं को बाहर निकलना समाज मैं हँसी कराना और लोगों के व्यग्यवाणों का निशाना बनना था। इससे प्रकट होता है कि जस्टिस बद्रुद्दीन कितने दूरदर्शी और समय को पहचाननेवाले व्यक्ति थे।"

हिन्दुस्तान में उस समय भी अंग्रेजी फैशन चल पड़ा था और आज तो वह इतना व्यापक है कि किसी कालिज या इफ़्तर में चले जाइए, आपको एक सिरे से अंग्रेजी फैशनवाले ही लोग दिखाई देंगे।