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राणा प्रताप
 


उसकी सेना को तलवार के घाट उतार दिया। जब तक बादशाही दरबार तक ख़बर पहुँचे-पहुँचे, राणा का केसरिया झण्डा दूर क़िलो पर लहरा रहा था। साल भर भी न गुजरा था कि उसने अपने हाथ से गया हुआ राज्य लौटा लिया। केवल चित्तौड़, अजमेर और गढ़मण्डल पर कब्जा न हो सका। इसी हल्ले में उसने मानसिंह का भी थोड़ा मान-मर्दन कर दिया। अकबर पर चढ़ दौड़ा और वहाँ की मशहूर मण्डी भालंपुरा को लूट लिया।

मन में प्रश्न उठता है कि अकबर ने राणा को क्यों इतमीनान से बैठने दिया। उसकी शक्ति अब पहले से बहुत अधिक हो गई थी, उसके साम्राज्य की सीमाए दिन-दिन अधिक विस्तृत होती जाती थी। जिधर रुख करता, उधर ही विजय हाथ बाँधे खड़ी रहती। सरदारों में एक-से-एक प्रौढ़ अनुभववाले रण-कुशल योद्धा विद्यमान थे। ऐसी अवस्था में वह राणा की इन ज्यादतियों को क्यों चुपचाप देखता रहा? शायद इसका कारण यह हो कि वह उन दिनो दूसरे देश जीतने में उलझा हुआ था। या यह कि अपने दरबार को राणा से सहानुभूति रखनेवाला पाकर उसे फिर छेड़ने की हिम्मत न हुई हो। जो हो, उसने निश्चय कर लिया कि राणा को उन पहाड़ियों में चुपचाप पड़ा रहने दिया जाय। पर साथ ही निगाह रखी कि वह मैदान की ओर न बढ़ सके। राणा की जगह कोई और आदमी होता तो इस शांति और आराम को हजार गनीमत समझता और इतने कष्ट झेलने के बाद इस विश्रांति-लाभ को ईश्वरीय सहायता समझता। पर महत्वाकांक्षी राणा को चैन कहाँ। जब तक वह अकबर से लोहा ले रहा था, जब तक अकबर की सेना उसकी खोज में जंगल-पहाड़ से सिर टकराती फिरती थी, तब तक राणा के हृदय को सन्तोष न था। जब तक यह चिन्ता अकबर के प्राणो को जला रही थी, तब तक राणा के दिल में ठंडक थी। वह सच्चा राजपूत था। शत्रु के क्रोध, कोप, धृणा यहाँ तक कि तिरस्कार-भाव को भी सहन कर सकता था, पर उसका दिल भी इसको बर्दाश्त न कर सकता था कि कोई उसे दया-दृष्टि से देखे