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कलम, तलवार और त्याग
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सैयद के मन में यह शङ्का बस गई कि हिंदू मुसलमानों को नीचा दिखाना चाहते हैं। सम्भव है, कुछ और भी कारण उपस्थित हो गये हों, जिनसे इस धारणा की पुष्टि हुई हो कि हिंदू-मुसलमान का मेल और एक अनहोनी बात है। दोनों जातियों में ऐतिहासिक और धर्मगत विभेद-बिलगाव पहले से ही मौजूद थे। मुग़ल साम्राज्य की समाप्ति और अंग्रेजी राज्य की स्थापना ने इन विरोधों को मिटान और पुराने घावों को भरना आरम्भ ही किया था कि यह नये झगड़े उठ खड़े हुए और संयुक्त राष्ट्रीयता का लक्ष्य सुदीर्घकाल के लिए हमारी आँखों से ओझल हो गया। धर्म-संप्रदायों के मत-भेदों का सक्रिय शत्रुता के रूप में परिवति हो जाना कितना आसान है, यह हम आये दिन आँखों से देख रहे हैं। आज जरा-जरा-सी बातों पर, जिन का सिद्धान्त की दृष्टि से कोई महत्व नहीं, आपस में मार काट मच जाती है और राष्ट्र की शक्ति का एक बड़ा भाग इस शृह-कलह के अग्नि-कुण्ड में स्वाह हो जाता है। ऐसा कोई साल नहीं जाता जब दो-चार स्थानों में लोमहर्षण साम्प्रदायिक दंगे न हो जाते हों। कितने दुःख की बात है कि उस समय उभय-पक्ष की अनुदारता और अदूरदर्शिता ने आपस के उस मेल मिलाप और सहिष्णुता के रास्ते में रोड़े अटका दिये, जिसकी नीव पर ही संयुक्त राष्ट्रीयता की इमारत उठाई जा सकती है। संभव है, सर सैयद ने इस विचार से कि मुसलमान पहले इस देश पर राज्य कर चुके हैं, उनके साथ कुछ विशेषता-प्रदर्शन की आवश्यकता समझी हो, पर हिन्दू समान पद से अधिक और किसी रिआयत के लिए तैयार न थे। सर सैयद ने उस समय उदारता से काम लिया होता तो हिन्दुस्तान की हालत कुछ और होती। पर उन्होने तात्कालिक और निकट भविष्य के लाभों को स्थायी और राष्ट्रीय हितों पर प्रधानता दी। शासित हिन्दुओं की अपेक्षा शासक अंग्रेजों से मेल रखना कहीं अधिक लाभजनक था। सरकार के हाथ में अधिकार थे, पद थे और उन्नति के अपरिमित साधन थे। हिन्दुओं की दोस्ती में परस्पर मिल-