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रणजीतसिंह

भारत के पुराने शासकों में शायद ही कोई ऐसा होगा जिस पर यूरोपीय ऐतिहासिकों और अन्वेषकों ने इतने विस्तार के साथ आलोचना की हो, जितना पंजाब के महाराज रणजीतसिंह पर। उनके चरित्र और स्वभाव, उनकी न्यायशीलता, उनके शौर्य और पराक्रम, उनकी प्रबन्ध पटुता, उनके उत्साहपूर्ण आतिथ्य-सत्कार और अन्य गुणों तथा विशेषताओं के संबन्ध में प्रतिदिन इतनी वार्ताएँ प्रसिद्ध होती थीं कि यूरोप के मनचले ग्रंथकारों और पर्यटकों के मन में अपने आप यह उत्सुकता उत्पन्न हो जाती थी कि चलकर ऐसे विलक्षण और गुण गरिष्ठ व्यक्ति को देखना चाहिए। और उनमें से जो आता, वह महाराज के सुन्दर गुणों की ऐसी गहरी छाप दिल पर लेकर जाता जो उनकी सराहना में दफतर के दफ्तर रंग डालने पर भी तृप्त न होती थी। सिराजुद्दौला, मीर जाफर और अवध के नवाबों का हाल पढ़ पढ़कर यूरोप में आम खचाल हो गया था कि भारत में यह योग्यता ही नहीं रही कि ऊंचे दरजे के राजनीतिज्ञ और शासक उत्पन्न कर सके। अधिक से अधिक वहाँ कभी कभी लुटेरे सिपाही निकल खड़े होते हैं और बस। पर महाराज रणजीतसिंह के व्यक्तित्व ने इस धारणा का बड़े जोर के साथ खण्डन कर दिया, और यूरोपवालों को दिखा दिया कि विभूतियों को उत्पन्न करना किसी विशेष देश या जाति का विशेषाधिकार नहीं है, किन्तु ऐसे महिमाशाली पुरुप प्रत्येक जाति और प्रत्येक काल में उत्पन्न होते रहते हैं। और यद्यपि रणजीतसिंह के अनेक चरित्र-लेखकों पर इस सामान्य कुधारणा का असर बना है और उनके चरित्र का अध्ययन करने में वह इस भावना को अलग नहीं रख सके।