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रणजीतसिंह
 


फिर भी महाराज की अपनी ख़ास ,खूबियों ने जो कुछ बरबस उनकी लेखनी से लिखवा लिया, वह इस बात को प्रमाणित कर देता है कि १८ वीं शताब्दी में नेपोलियन बोनापार्ट को छोड़कर कोई दूसरा ऐसा मनुष्य उत्पन्न नहीं हुआ। बल्कि उस परिस्थत को देखते हुए जिसके भीतर रणजीतसिंह को काम करना पड़ा, कह सकते हैं कि शायद नेपोलियन में भी वह योग्यताएँ न थीं जो महाराज-से व्यक्ति में एकत्र हो गई थीं। फ्रांस स्वाधीन देश था और वहाँ के दार्शनिकों ने जनसाधारण में प्रजातन्त्र के विचार फैला दिये थे। नेपोलियन को अधिक से अधिक इतना ही करना पड़ा कि मौजूद और तैयार मसाले को इकट्ठा कर उससे एक इमारत खड़ी कर ली। इसके विपरीत भारतं कई सौ साल से पीसा-कुचला जा रहा था, और रणजीतसिंह को उनसे निबटना पड़ा जो लम्बे अरसे तक भारत के भाग्य-विधाता रह चुके थे। निस्सन्देह, सेनापति रूप में नेपोलियन का पद ऊँचा है, पर शासन-प्रबन्ध की योग्यता में महाराज रणजीतसिंह उससे बहुत आगे बढ़े हुए हैं। यद्यपि उनका स्थापित किया हुआ राज्य उनके बाद अधिक दिन टिक न सका। पर इसमें स्वयं उनका कोई दोष नहीं। इसकी जिम्मेदार वह आपस की बैर और फूट है जिसने सदा इस देश की दुर्दशा कराई और जिसे महाराज रणजीतसिंह भी दिलों से दूर कराने में सफल न हो सके।

रणजीतसिंह के जन्म और बचपन का समय भारत में बड़ी हल- चल और परिवर्तन का काल था। वह सिख जातिं जो गुरुगोविन्द सिंह के दिलो-दिमाग से उपजी थी और कई शहीदों ने जिसे अपने बहु-मूल्य रक्त से सींचकर जवान किया था, साहस और वीरत्व के मैदान में अपनी पताका फहरा चुकी थी। सन् १७९२ ई० से जब सिखों ने सरहिंद का किला जीता और जिसे अहमदशाह अब्दाली भी. उनसे न छीन सका, सिखों का बल-प्रभाव वृद्धि पर था। पर यह जातीय भाव, जो कुछ दिनों के लिए उनके हृदयों में तरंगित हो उठा था, विदा हो चुका था। दलबन्दी का बाजार गरम था और कितनी ही