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अकबर महान
 


उसने एक ऐसा आदेश निकाला, जो इंगलैंड की आज सारी उन्नति-समृद्धि का रहस्य है, पर जो सैकड़ो साल तक ठोकरे खाने के बाद उसको सूझ गया। अर्थात् व्यापार-वाणिज्य को उन सब करो से मुक्त कर दिया जो उसकी उन्नति में बाधक हो रहे थे। और यद्यपि आरम्भ में उनकी अल्पवयस्कता और असहायता के कारण वह पूरी तरह कार्यान्वित न हो सका, पर जब शासन का सुत्र उसके हाथ में आया तो वह उसको जारी करके रहा। यह तो वह बर्ताव है जो भीतरी व्यापार के साथ किया गया। विदेशी व्यापार को भी कुछ भारी करों से बाधा पहुँच रही थी जो मीर बहरी या समुद्री कर (Sea costums) कहलाते थे। अकबर ने इन करों को भी इतना घटा दिया कि वह नाम मात्र के अर्थात् २।। प्रतिशत रह गये और इससे देश के विदेशी व्यापार को जितना लाभ हुआ उसे बताने की आवश्यकता नहीं। यद्यपि ‘फ्री ट्रेड' अर्थात् 'अबाघ वाणिज्य' 'ब्रिटिश सरकार का ओढ़ना-बिछौना हैं, पर इस जमाने में भी समुद्री करों की दुर अकबर की बाँधी हुई से कहीं अधिक है।

सारी दुनिया के कानूनों का यह झुकाव रहा है कि आरंभ में छोटे-छोटे अपराधों के लिए भी अति कठोर दण्ड की व्यवस्था की जाती है, पर जब सभ्यता में उन्नति और जाति की स्थिति में प्रगति होने लगती है तो सजा में भी नरमी होती जाती है। भारतवर्ष में भी पुरातन-काल से कुछ जंगली सजाओं का रिवाज, चला आता था जैसे हाथ-पाँव काट देना, अंधा कर देना आदि। अकबर के जाग्रत विवेक ने इनकी अमानुषिकता को समझ लिया और राज्यारोहण के छठे साल में ही इनको बिल्कुल बंद कर दिया। पुराने जमाने में यह रीति थी कि युद्ध में जो कैद होते थे, वह जीवन भर के लिए स्वतन्त्रता से वंचित होकर विजेता के दास बन जाते थे। रणनीति और राजनीति की दृष्टि से इसका कैसा ही असर क्यों न पड़ता हो, पर मानवता के विचार से यह प्रथा जितनी क्रूर और अत्याचारपूर्ण है, उसे बताने की आवश्यकता नहीं। इसलिए अकबर के लिए