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कलम, तलवार और त्याग
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राणा जब तक जीवित रहा, इन व्रतो का पालन करता रहा, उसके बाद उसके उत्तराधिकारी भी उनका पालन करते आये, और अब तक यह रस्म चली आती है, अन्तर यह है कि पहले इस रस्म का कुछ अर्थ था, अब वह बिल्कुल बेमानी हो गई है। विलासिता ने निकास की सूरतें निकाल ली है, तो भी जब सुनहरे बर्तनों में खाते है तो चंद पत्ते ऊपर से रख लेते हैं। मख़मली गद्दो पर सोते है तो इधर-उधर पयाल के टुकड़े फैला देते है।

राणा ने इतने ही पर सन्तोष न किया। उसने उदयपुर को छोड़ा और कुभलनेर को राजधानी बनाया। अनावश्यक और अनुचित खर्चे जो महज नाम और दिखावे के लिए किये जाते थे, बन्द कर दिये, जागीरो का फिर से नई शर्तों के अनुसार वितरण किया। मेवाड़ का वह सारा हल्का जहाँ शत्रु का प्रवेश संभव हो सकता था, और पर्वतप्राचीर के बाहर था, सपाट मैदान बना दिया गया। कुएँ पटवा दिये गये और सारी आबादी पहाड़ों के अन्दर बसा दी गई। सैकड़ों मील तक उजाड़ खण्ड हो गया और यह सब इसलिए कि अकबर इधर रुख करे तो उसे कर्बला के मैदान का सामना हो। उस उपजाऊ मैदान में अनाज के बदले लम्बी-लम्बी घास लहराने लगी, बबूल के काँटो से रास्ते बन्द हो गये और जंगली जानवरों ने उसे अपना घर बना लिया। परन्तु अकबर भी राज्यविस्तार-विद्या का आचार्य था। उसने राजपूतों की तलवार की काट देखी थी और खूब जानता था कि राजपूत जब अपनी जानें बेचते हैं तो सस्ती नहीं बेचते। इस शेर को छेड़ने से पहले उसने मारवाड़ के राजा मालदेव को मिलाया। आमेर की राजा भगवानदास और उसकी बहादुर बेटा मानसिंह दोनों पहले ही अकबर के बेटे बन चुके थे। दूसरे राजाओं ने जब देखा कि ऐसे-ऐसे प्रबल प्रतापी नरेश अपनी जान की खैर मना रहे हैं तो वह भी एक-एक करके शुभचिन्तक बन गये। इसमें कोई राणा का मामू था तो कोई फूफा। यहाँ तक कि उसका चचेरा भाई सागरजी भी उससे