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स्वामी विवेकानन्द
 


सामने सिर झुका देना पड़ा। और कुछ ही दिनों में हिमालय से लगाकर रासकुमारी तथा अटक से कटक तक उसकी पताका फहराने लगी। हमारी आँखें इस भौतिक प्रकाश के सामने चौंधिया गईं, और हमने अपने प्राचीन तत्त्वज्ञान, प्राचीन शास्त्र-विज्ञान, प्राचीन समाज-व्यवस्था, प्राचीन धर्म और प्राचीन आदर्शों को त्यागना आरंभ कर दिया। हमारे मन में दृढ़ धारणा हो गई कि हम बहुत दिनों से मार्ग:भ्रष्ट हो रहे थे और आत्मा-परमात्मा की बातें निरी ढकोसला हैं। पुराने जमाने में भले ही उनसे कुछ लाभ हो, पर वर्तमान काल के लिए वह किसी प्रकार उपयुक्त नहीं और इस रास्ते से हटकर हमने नये राज मार्ग को न पकड़ा तो कुछ ही दिनो में धरा-धाम से लुप्त हो जायेंगे। ऐसे समय पुनीत भारत-भूमि में पुनः एक महापुरुष का आविर्भाव हुआ। जिसके हृदय में अध्यात्म-भाव का सागर लहरा रहा था, जिसके विचार ऊँचे और दृष्टि दूरगामिनी थी, जिसका हृदय मानव-प्रेम से ओत-प्रोत था; उसकी सचाई भरी छलकार ने क्षण-भर में जड़वादी संसार में हलचल मचा दी। उसने नास्तिक्य के गढ़ में घुसकर साबित कर दिया की तुम जिसे प्रकाश समझ रहे हो, वह वास्तव में अंधकार है, और यह सभ्यता जिस पर तुमको इतना गर्व है, सच्ची सभ्यता नही। इस सच्चे विश्वास के बल से भरे हुए भाषण ने भारत पर भी जादू का असर किया और जड़वाद के प्रखर प्रवाह ने अपने सामने ऐसी ऊँची दिवार खड़ी पाई, जिसकी जड़ को हिलाना या जिसके ऊपर से निकले जाना उसके लिए असाध्य कार्य था। आज अपनी समाज-व्यवस्था, अपने वेद-शास्त्र, अपने रीत-व्यवहार और अपने धर्म को हम आदर की दृष्टि से देखते है। यह उसी पूतात्मा के उपदेशों का सुफल है कि हम अपने प्राचीन आदर्शों की पूजा करने को प्रस्तुत हैं, और यूरोप के वीर-पुरुष और योद्धा, विद्वान और दार्शनिक हमें अपने पंडितों, मनीषियों के सामने निरे बच्चे मालुम होते हैं। आज हम किसी बात को चाहे वह धर्म और समाज-व्यवस्था से संबन्ध रखती हो या ज्ञान-विज्ञान से, केवल इसलिए मान लेने को तैयार नहीं