पृष्ठ:कलम, तलवार और त्याग.pdf/८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
कलम, तलवार और त्याग
८६ ]
 


ने शाही दरबार में उसे मान-प्रतिष्ठा के आसन पर आसीन कर रखा था। उसके होनहार तेजस्वी बेटे की जितनी आव भगत होनी चाहिए थी, उससे अधिक हुई। अकबर ने उसके साथ पितृ-सुलभ स्नेह दिखाया! और सन् १५७२ ई॰ में जब गुजरात पर चढ़ाई की तो नवयुवक राज कुमार को हमराही को सम्मान प्रदान किया। इस मुहिम में उसने वह बढ़-बढ़कर हाथ मारे कि अकबर की नजरों में जॅच गया। अगर कुछ कोर-कसर थी तो वह उसे वक्त पूरी हो गई जब खान आजम अहमदाबाद में घिर गया और अकबर ने आगरे से कुच करके दो महीने की राह ७ दिन में तै की। नौजवान राजकुमार इस धावे में भी साथ रहा। यह मानो उसकी शिक्षा और परीक्षा के दिन थे।

अब वह समय आया कि बड़े-बड़े विश्वास और दायित्व के काम उसे सौंपे जाएँ। दैव-योग से इसका अवसर भी जल्दी ही हाथ आया। वह शोलापुर की मुहिम मारे चला आ रहा था कि रास्ते में कुभलमेर स्थान में महाराणा प्रतापसिंह से भेंट हुई। राणा कछवाहा कुछ पर उसके विचार-स्वातन्त्र्य के कारण तना बैठा था कि उसने राजपूतो के माथे पर कलंक का टीका लगाया। मानसिंह पर चुभते हुए व्यंग्यवाण छोड़े जो उसके कलेजे के पार हो गये। इस घाव के लिए बदला लेने के सिवाय और कोई कारगर मरहम ने दिखाई दिया।

मानसिंह ने आगरे पहुँचकर अकबर को सारी कथा सुना दी। अकबर ऊँची हिम्मत का बादशाह था, क्रोध में आ गया। राणा पर चढ़ाई की तैयार की। शाहजादा सलीम सेनापति बनाये गये और मानसिंह उनका मन्त्री नियुक्त हुआ। शाही फौज जंगलों-पहाड़ों को पार करती राणा के राज्य में प्रविष्ट हुई। राणा उस पर मर मिटने को तैयार २१ हजार राजपूतों के साथ हलदी धाटी के मैदान में अड़ा खड़ा था। यहाँ खूब धमासान की लड़ाई हुई, रक्त की नदियाँ बह गई। पहाड़ो के पत्थर सिबरफ बन गये। मेवाड़ के वीर मानसिंह के खून के प्यासे हो रहे थे। ऐसे जान तोड़-तोड़कर हमले करते थे कि