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कलम, तलवार, और त्याग
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एक कथा इस प्रकार प्रसिद्ध है कि जब दक्षिण को मुहिम जा रही थी, बालाघाट स्थान में अन्न का ऐसा टोटा पड़ा कि एक रुपये के आटे में भी आदमी का पेट नहीं भरता था। एक दिन राजा ने कचहरी से उठकर कहा कि अगर मैं मुसलमान होता तो एक समय हज़ार मुसलमानो के साथ भोजन करता। पर मैं सबमें बूढ़ा हूँ, सच भाई मुझसे पान स्वीकार करें। सबसे पहले खाँजहाँ लोदी ने हाथ सिर पर रख कर कहा कि मुझे स्वीकार है, फिर औरों ने भी स्वीकार किया। राजा ने एक सौ रुपया पंचहजारी की और इसी हिसाब से औरों का भोजन-व्यय बाँध दिया। हर रात को हर एक आदमी के पास एक खरीते मे यह रुपया पहुँच जाता। खरीते पर उसका नाम लिखा होता। सिपाहियों को सद् पहुँचने तक सस्ते दाम पर चीजें मिलने का प्रबन्ध करता। रास्ते में मुसलमानों के लिए हम्माम और कपड़े की मस्जिद बनवाकर खड़ी कराता। इसी को औदार्य कहते हैं और दरियादिली इसी का नाम है। ‘बारोबाहार' में शाहज़ादी बसरा की कहानी पढ़िए और उसकी तुलना इस ऐतिहासिक कथा से कीजिए!

राजा टोडरमल की तरह राजा मानसिंह भी मरते दम तक अपने बाप-दादों के धर्म पर दृद्द रहा; पर कट्टरपन से उसके स्वभाव को तनिक भी लगाव नहीं थी। धार्मिक असहिष्णुता व पक्षपात रखनेवाले ब्यक्ति को अकबर के राज्यकाल में उत्कर्ष पाना असंभव ही था। अकबर ने एक बार मानसिंह से इशारतन धर्म परिवर्तन का प्रस्ताव किया, उस पर राजा ने ऐसा उपयुक्त उत्तर दिया कि बादशाह को चुप हो जाना पड़ा। पुस्तकों में बहुत-से उल्लेख मिलते हैं जिनसे प्रकट होता है कि राजा रसिकता, विनोदशीलता और चुटकलेबाज़ी में भी औरों से दो क़दम आगे था। यही गुण थे जो उसके उत्कर्ष के सोपान थे। पर हमारी दृष्टि में तो उसका मूल्य और महत्त्व इसलिए है कि उसके घराने ने पहले-पहल दो परस्पर-विरोधी समुदायों को मिलाने का यत्न किया।