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पृष्ठ:कला और आधुनिक प्रवृत्तियाँ.djvu/१५

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एक प्रश्न

चित्र सभी देखते हैं और यह जानते हैं कि चित्र किसे कहते हैं । चित्र की परिभाषा जानने की एक बच्चे को भी आवश्यकता नहीं पड़ती । वह जन्म से वर्ष भर के अन्दर ही चित्र क्या है, जान लेता है । आरम्भ में थोड़ा भ्रम अवश्य होता है । बच्चा अपनी माँ को देखता है, दूध पीता है, उसकी गोदी से लिपटा रहता है । पिता को पहचानता है, और धीरे-धीरे भाई-बहनों को पहचानने का प्रयत्न करता है । माँ को तो खूब पहचानने लगता है । आप बच्चे के सामने उसकी माँ का एक बड़ा फोटो रख दें, वह उसकी ओर निहारेगा । फोटो यदि रंगीन हो तो वह जल्दी आकृष्ट होगा । कल्पना कीजिए, यदि उसकी माँ का ऐसा रंगीन फोटो उसके सम्मुख रखा जाय जिसमें माँ का वक्षस्थल उघरा हो और साफ-साफ दृष्टिगोचर हो, तो क्या होगा ? मैंने ऐसे समय बालक को हाथ बढ़ाते देखा है । वह भ्रम में पड़ता है, चित्र को अपनी माँ समझता है और आशा करता है कि वह भी माँ की तरह उसे दूध पिलाये ।

यह तो वर्ष भर के बालक की बात हुई । वह चित्र को चित्र नहीं समझता बल्कि कोई वस्तु समझता है, जिसे वह छुना चाहता है, पकड़ना चाहता है, लेना चाहता है। उसके सामने शीशा रख दीजिए, वह अपनी शक्ल देखकर उसे ही पकड़ना चाहता है । शीशे को बार-बार अपनी नन्हीं उँगलियों से नोचता है। पाता कुछ नहीं, केवल अनुभव । मैंने कई बार अपने कमरे में रखे बड़े शीशे पर गौरैया को झगड़ते देखा है । गौरैया अपनी सूरत शीशे में देख-कर घबड़ाती थी कि यहाँ दूसरी गौरैया कहाँ से आ गयी । वह शीशे पर बार-बार अपनी चोंच मारती थी, लड़ती थी, और उसे ऐसा करते मैंने लगातार हफ्ते भर देखा है । गौरैया भी बालक की भाँति शीशे में अपने प्रतिबिम्ब को सच समझती है, और उससे लड़ने का प्रयत्न करती है, झुंझलाती है, कभी शीशे के पीछे जाकर देखती है, कभी आगे आकर, कभी आवाज देकर । उसे भी भ्रम हो जाता है-चित्र को, प्रतिबिम्ब को वस्तु समझती है । वर्ष भर का बालक और चिड़िया बराबर हैं । बिलकुल एक-सी प्रकृति ।

क्या यह प्रकृति आगे चलकर बदलती है ? खास कर मनुष्य में ? क्या वह चित्र को वस्तु समझना छोड़ देता है ? क्या प्रतिबिम्ब को वह सच नहीं मानता ?