अभिव्यंजनात्मक प्रवृत्ति
आधुनिक चित्रकला जो हमारे सम्मुख एक पहेली के रूप में जान पड़ती है, उसका एकमात्र कारण यह है कि हमने अभी यह सोचा ही नहीं कि इस प्रकार की चित्रकला का आधार क्या है। हम अब तक यही सोचते आये हैं कि चित्रकला प्रकृति के यथातथ्य स्वरूपों को अंकित करने का एक माध्यम है, या किसी कथा-कहानी को रूप और रंगों के माध्यम से वर्णन करना है। ये दोनों ही दृष्टिकोण आधुनिक चित्रकला में नहीं पाये जाते। हम आधुनिक चित्रकला में इन्हें खोजने का प्रयास करते हैं, परन्तु परिणाम तक नहीं पहुंचते और वे केवल एक पहेली बनकर रह जाते हैं। दर्शक इन्हें अपनी योग्यतानुसार समझने का प्रयत्न करता है।
भारत की प्राचीन चित्रकला अधिकतर वर्णनात्मक शैली के रूप में हमारे सामने आती है। कोई कथा-कहानी या जीवन-चरित्र ले लिया जाता था, जिसके एक दृश्य का अंकन चित्रकार अपने चित्रों के द्वारा करता था। ब्राह्मण-काल में देवी-देवताओं के चरित्रों का अंकन, बौद्ध तथा जैन चित्रकला में महात्मा बुद्ध तथा महावीर की जीवनियों का आलेखन या उनके बारे में प्रचलित जातक कथाओं इत्यादि का चित्रण करना ही उस समय के चित्रकारों का मुख्य ध्येय था। मुगल-कला भी फारसी तथा ईरानी कला की भाँति कथाओं के वर्णन करने में ही आगे बढ़ी। बाद में दरबारी चित्रों का अधिक प्रचार हो गया था। राजपूत-कला भी अधिकतर वर्णनात्मक ढंग ही अपनाये रही। आजकल भारत का सम्बन्ध धीरे-धीरे पाश्चात्य देशों से अधिक घनिष्ठ होता जा रहा है। विदेशी प्रगति की प्रतिस्पर्धा से भारत भी अपना कदम आगे रख रहा है। यूरोप में कला, साहित्य तथा विज्ञान में जिन नयी धाराओं का आगमन हो रहा है उनका प्रभाव यहाँ भी भली-भाँति पड़ रहा है। इसका यह तात्पर्य नहीं कि यहाँ केवल वहाँ का अन्धाधुन्ध अनुकरण हो रहा है। शायद इस युग का अपना एक सन्देश है जो प्रत्येक आधुनिक देश में व्याप्त हो रहा है। अस्तु, उसी प्रकार की चेतना का यहाँ भी अनुभव हो रहा है।
उन्नीसवीं शताब्दी को वैज्ञानिक युग कहा गया है और बीसवीं शताब्दी को आधुनिक