इससे आगे जब हम बढ़ते हैं तो सभ्य समाज में धारणा यह होती है कि कला का कार्य केवल वस्तु-चित्रण ही नहीं है, बल्कि कला के माध्यम से हम अपनी भावनाओं तथा विचारों की भी अभिव्यक्ति कर सकते हैं । चित्र ऐसा हो जो देखनेवाले के मन पर प्रभाव डाले, विचारों में परिवर्तन करे, नये विचार दे या कहिए कोई नव सन्देश यक्त करे-चित्र को बोलना चाहिए । बात जँच गयी, जम गयी और सभ्य शिक्षित समाज ने इसी को-चित्र की कला समझा । वस्तु से थोड़ा ऊपर उठकर भावना, विचार या सन्देश को प्रधानता मिली । पर यह सब वस्तु-चित्रण के द्वारा होना चाहिए, इसमें सन्देह न था,सआस्था बन गयी यद्यपि वस्तु से अधिक प्रधानता अभिव्यक्ति को प्राप्त हुई । साथ-साथ भाव यह भी बना रहा कि चित्र सुन्दर होना चाहिए । अर्थात् वस्तु का चित्रण हो, भावना, विचार तथा सन्देश व्यक्त हो, और सुन्दरता हो । कला आगे बढ़ी । अजन्ता, मुगल, राजपूत-सभी भारतीय प्राचीन कला-शैलियों में इस भाव का समावेश था । आधुनिक कलाकारों ने पुनः इन भावों को दृढ़ किया। समाज ने इसे समझने का प्रयत्न किया ।
फिर आधुनिक कला ने वस्तु-चित्रण के स्थान पर यह क्या किया ? ऐसे चित्र बनते हैं जिनमें यह मालूम ही नहीं पड़ता कि चित्र किस वस्तु का है, क्या भावना, विचार या सन्देश व्यक्त होता है । इन आधुनिक सूक्ष्म चित्रों को देखकर केवल जटिलता का बोध होता है । चित्रकारों का पागलपन या विकृति नज़र आती है । यूरोप, अमेरिका, इंगलैण्ड -- सभी देशों के कलाकार पागल हो गये है, विकृत हो गये हैं, कि वहाँ मुश्किल से अब कोई ऐसा नया चित्र दिखाई पड़ता है जिसमें किसी वस्तु का चित्रण हो, क्या भावना या सन्देश है इसका पता लगे । सुन्दरता तो नज़र ही नहीं आती । इन चित्रकारों को पागल समझनेवाले वहाँ काफी हैं, पर इसकी सचाई भारतवासियों को सात समुद्र पार से ही मालूम हो गयी है । हम विज्ञान में यूरोप से भले पीछे हों, पर सचाई तो हम ही दूसरों को सिखा सकते हैं । हमें इस पर गर्व है । इसका हमें दावा है । अफसोस तो इस बात का है कि हमारे कलाकार स्वयं पागल हुए जा रहे हैं, इन पाश्चात्य कलाकारों को देखकर । क्या हमारे कलाकारों की बुद्धि भ्रष्ट हो गयी है ? क्या आजादी प्राप्त करने के बाद यही कार्य बाकी रह गया है ? पिछले वर्षों दिल्ली में 'ललित कला अकादमी' की प्रदर्शनियों में सूक्ष्म कला की बाढ़-सी आ गयी । रोके न रुकी । यहां तक कि प्रदर्शनी के सूचीपत्रों में दिये चित्रों तथा मान्यता प्राप्त चित्रों में केवल सूक्ष्म चित्र ही दिखाई पड़े । क्या यह चिन्ता का कारण नहीं ? हमारे विद्वान् कला-रसिक, कला-इतिहासज्ञ, कला-पारखी इसे क्यों नहीं रोक पाते ?
इसीलिए कि क्रान्ति रोके से नहीं रुकती, तूफान थामे नहीं थमता । तो क्या होगा?