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कला और आधुनिक प्रवृत्तियाँ

देश के दार्शनिक, नेता, साहित्यकार, वैज्ञानिक या कलाकार को अध्ययन करना पड़ता है, भविष्य की कल्पना करनी पड़ती है, और नये-नये रास्ते खोजने पड़ते हैं । जब हम आज के जीवन से सन्तुष्ट नहीं हैं, तो अधिक सुखमय या प्रगतिशील जीवन को पाने के लिए हमे अपने भविष्य की कल्पना करनी पड़ती है । हम जानते हैं कि आज का भारतीय समाज सदियों से गुलामी में जकड़े रहने के कारण विकृत हो गया है, पिछड़ गया है । यहाँ अविद्या है, गरीबी है, बेकारी है और तमाम खराबियाँ हैं । आज का भारत इन्हीं का प्रतीक-सा हो गया है । इसका तात्पर्य तो यह हुआ कि यदि कला तथा साहित्य अपने समय के समाज के दर्पण हैं तो उन्हें आज केवल इसी विकृत रूप का चित्रण करना चाहिए । परन्तु इसका परिणाम क्या होगा ? इन चित्रों में आज के समाज का विकृत, कलुषित रूप देखकर समाज को क्या लाभ होगा ? यही कि वह उन्हें देखकर पछताये या उन्हीं को सत्य और सही समझ कर उसी का अनुकरण करे । इससे तो कोई प्रगति नहीं होगी । समाज जहाँ का तहाँ रहेगा और शायद और भी विकृत हो जायगा । जब तक हम समाज के सम्मुख सही रास्ता नहीं रखते, उसका पथप्रदर्शन नहीं करते, उसको सुख-प्राप्ति के नये साधन नहीं बता सकते, तब तक ऐसी कला, साहित्य या विज्ञान से लाभ ही क्या ?

कला यदि केवल समाज का दर्पण है तो ऐसे दर्पण में वर्तमान समाज अपने कलुषित रूप को ही देख पाता है । परन्तु कला यदि ऐसा ही दर्पण है कि उसे देखकर हम अपने मुँह पर लगी कालिमा को तो देख लें, पर उसे दूर करने की विधि, कोई तरीका न प्राप्त कर सकें तो कला को सचमुच एक निर्जीव दर्पण ही समझना है। परन्तु कला और दर्पण में बहुत अन्तर है । दर्पण एक निप्प्राण वस्तु है । इसका कार्य निश्चित है और एक परिधि के भीतर है । दर्पण केवल वही रूप अपने में प्रतिबिम्बित कर सकता है, जो उसके सम्मुख होता है, परन्तु कला ऐसी निर्जीव वस्तु नहीं है । कला की रचना मनुष्य करता है, मनुष्य कला के द्वारा अपनी अभिव्यक्ति करता है । उसके मस्तिष्क में तथा हृदय में जो कुछ प्राता है वे सभी विचार और भावनाएँ वह अपने चित्र में अंकित करता है। मनुष्य के विचार और भावनाएँ कभी भी निश्चित परिधि में नहीं रहती । मन चंचल होता है, मस्तिष्क में अनेकों प्रकार के विचार आते हैं । कल्पना में अनेकों रूप बनते-बिगड़ते रहते हैं । चित्र में इन सभी को अंकित किया जा सकता है । दर्पण और कला की क्या तुलना हो सकती है ? यदि कला दर्पण है तो वह दर्पण जो मनुष्य का केवल वर्तमान रूप ही नहीं लक्षित करता वरन् वह कैसा था और उसे कैसा होना चाहिए यह सभी रूप प्रतिबिम्बित करता है, और तभी इसका कोई लाभ है । मान लीजिए हमने दर्पण में अपना मुख पहले कभी नहीं देखा, और अनजाने में कोई यदि हमारे मुख पर कालिख मल दे और इसके बाद यदि हम दर्पण में अपना मुख देखें तो हमें क्षोभ न होगा, क्योंकि हम उसे ही अपना असली रूप समझेंगे