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कला और प्राधुनिक प्रवृत्तियाँ

कहते। कलाकार हम उसे कहते हैं जो कोई विलक्षण रचना करता है, जैसा सभी व्यक्ति.नहीं करते, जैसे संगीत का कार्य, चित्र का कार्य, नृत्य का कार्य, मूर्ति का कार्य, काव्य का कार्य, साहित्य का कार्य इत्यादि। इतने से ही हम सन्तुष्ट नहीं होते और कलाकार का अर्थ हम और संकुचित करते हैं। उसी को कलाकार समझते हैं जो सत्यम्-शिवम्- सुन्दरम्का ज्ञाता होता है। सबसे सूक्ष्म कलाकार हम परमात्मा या ईश्वर को समझते हैं। यह हमारी मानसिक बाजीगरी का स्वरूप है। कलाकार तो सम्पूर्मनुष्य जाति है, सृष्टि की प्रत्येक वस्तु है। अर्जुन को श्री कृष्ण ने महाभारत में अपना विराट रूप दिखाया, जिसमें समस्त भूमण्डल तथा त्रिलोक सम्मिलित था। इस दृष्टिकोण से कलाकार ईश्वर ही नहीं त्रिलोक है, अर्थात् त्रिलोक की प्रत्येक वस्तु कलाकार है, प्रत्येक जीव कलाकार है, प्रत्येक मनुष्य कलाकार है।

गीता में कर्म को मनुष्य के जीवन में सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। कर्म करना मनुष्य का धर्म बताया गया है। कर्म करनेवाला ही कलाकार हो सकता है। जो भी कर्म करता है वह कलाकार है, अर्थात् कला का कार्य करना ही मनुष्यत्व है। प्रत्येक मनुष्य के लिए कलाकार बनना आवश्यक है। प्रत्येक मनुष्य के लिए कला का कार्य करना आवश्यक है। कला का कार्य करने का अधिकार केवल कुछ चुने हुए व्यक्तियों के लिए ही नहीं,.अपितु सम्पूर्ण मनुष्य जाति के लिए है। मनुष्य का लक्ष्य कलाकार बनना है। मनुष्य के प्रत्येक व्यवहार में कला-वृत्ति आवश्यक है। मनुष्य की सुकीर्ति, विकास, प्रगति तथा जीवन सभी कला पर आधारित है । संसार की प्रत्येक जाति का उत्थान कला के कार्य पर आधारित है।

प्राचीन भारत, चीन, रोम तथा ग्रीस का उत्थान उनकी कला पर आधारित था। कोई.देश या जाति कला का निरादर नहीं कर सकती। किसी देश या जाति का जब प्रत्येक व्यक्ति कलाकार की भाँति कार्य करता है, तभी उस जाति या सभ्यता का विकास होता है,उत्थान होता है।

प्राचीन भारत में कलाकार शब्द के स्थान पर शिल्पी शब्द प्राप्त होता है। आज भी शिल्पी शब्द प्रचलित है। साधारणतया हम शिल्पी के अर्थ में केवल मूर्तिकार तथा भवन निर्माणकार को समझते हैं। परन्तु प्राचीन भारत में शिल्पी सम्पूर्ण विद्याओं का द्योतक था।

श्री गोविन्दकृष्ण पिल्लई अपनी पुस्तक में लिखते हैं――

“प्राचीन समय में जब कलाकार तथा दस्तकार में भेद नहीं था, हिन्दू जाति ‘शिल्पी’