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कलाकार का व्यक्तित्व

शब्द का व्यवहार कलाकार, भवन-निर्माणकार तथा मूर्तिकार को सम्बोधित करने के लिए करती थी, जिसके कार्य की परिधि विज्ञान जैसे गणितशास्त्र तथा ज्योतिषशास्त्र तक पहुँचती थी।

अक्सर शिल्पी शब्द का भाषान्तर करते हुए इसको मूर्ति कार या भवन-निर्माणकार के रूप में व्यवहार किया जाता है। यह इन शिल्पियों के साथ अन्याय है। शिल्पी शब्द इतना व्यापक है जितना शिल्पशास्त्र और दोनों को अभेद्य स्थान प्राप्त है।

निश्चित ही शिल्पी को भारत में बहुत उच्च स्थान प्राप्त था। ‘मानसार’ के अनुसार ज्ञात होता है कि शिल्पी के लिए वेदों तथा शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करना सबसे प्रारम्भिक कार्य था।

‘मानसार’ के अनुसार चार प्रकार के शिल्पी बताये गये हैं――स्थपति, सूत्रग्रही, वर्धकी तथा तक्षक। स्थपति शिल्पी सबसे उत्तम समझा जाता था। ऐसे शिल्पी के लिए प्रत्येक शास्त्र तथा वेद का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक था, अर्थात् उसका ज्ञान सम्पूर्ण होना आवश्यक था। वह सम्पूर्ण ज्ञान का प्राचार्य समझा जाता था। वह अन्य शिल्पियों का आचार्य था।

सूत्रग्रही भी सभी वेदों तथा शास्त्रों का पण्डित होता था और रचना तथा अलंकरण में दक्ष होता था। वर्धकी शिल्पी भी वेदों तथा शास्त्रों का ज्ञाता था। वह प्रमाण-शास्त्र में दक्ष होता था। वह कुशल चित्रकार तथा निपुण गुणग्राही होता था।

तक्षक शिल्पी को भी वेदों तथा शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक था। उसे अपने कार्य में कुशल होने के अतिरिक्त सामाजिक, विश्वासी तथा दयालु होना पड़ता था। सभी शारीरिक तथा मानसिक कार्यों में दक्ष होना आवश्यक था। वह काष्ठ-कला, वास्तु-कला, मूर्तिकला, लौह-कला तथा चित्रकला में कुशल होता था।

इसी प्रकार विष्णुधर्मोत्तर पुराण में मार्कण्डेय ऋषि तथा वज्र के कला-सम्बन्धी वार्तालाप में कुशल चित्रकार या कलाकार वह माना गया है जिसने मूर्तिकला, चित्रकला, नृत्यकला, संगीतकला, सभी का अध्ययन भली-भाँति किया हो और धर्म शब्द इतना व्यापक है कि इसमें मनुष्य के सभी कार्य आ जाते हैं।

शुकनीतिसार में चौसठ कलाओं का वर्णन है तथा बत्तीस विज्ञानों का, और यह सभी वेदों तथा शास्त्रों में निहित है। इन सभी का ज्ञान प्राप्त करना शिल्पी के लिए आवश्यक था। यह कहना कठिन है कि इस प्रकार के उस समय कितने शिल्पी थे या यह केवल एक