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कवितावली

१२ थे। ऐसे भी ना काय भाग गया (उस्ले छोड़ गया ) कि जिनकी प्रभूता को कशि और मांगना लक्षाते रहते थे। सोला साहस रामचन्द्र के बाये (टेढ़े होने सो उनकर सब सुख र सम्पत्ति काम हो बाई । अथवा रामबन्द्र के बाम (खिलाफ) होने से उल्ल वाम' ( टेढ़े) को सब सम्पदा डन्टी हो गई। [१४५ ] बेद-बिरुद्ध, मही, मुनि, साधु लोक किये, सुरलोक उजारो। और कहा कहौं तीय हरी, तबहूँ करुनाकर कोप न धारो ॥ सेवक-छोह ते छाँडी छमा, तुलसी लख्यो राम सुभाव तिहारो। तालों न दाप दल्यो दसकंधर जाले विभीषन लात न मारो॥ अर्थ-जिसने वेद के विरुद्ध किया, पृथ्वी, मुनि और साधु को शोक-साहित किया और सुरलोक को उजाड़ दिया। और का क्या कहना है, जब रामचन्द्र की स्त्री को भी हर ले गया तब भी कृपा करनेवाले श्रीरामचन्द्र ने क्रोध न किया। परन्तु दाल के कारण क्षमा को छोड़ दिया । तुलसीदास कहते हैं कि हे राम! आपका स्वभाव खूब पहचाना है। तब तक रात्रण के अहङ्कार को नष्ट न किया जब तक उखने विभीषण को लात नहीं मारी। . [१४६ ] सोकसमुद्र निमज्जत काढ़ि कपीश कियो जग जानत जैसो । नीच निसाचर बैरी को बंधु बिभीषन कीन्ह पुरंदर कैसोछ । नाम लिये अपनाइ लियो, तुलसी से कहै जग कौन अनैसो। आरत-श्रारति-भंजन राम, गरीब-नेवाज न दूसर ऐसा ॥ अर्थ-शोक-समुद्र में डूबते सुग्रीव को निकालकर जैसा किया वैसा संसार जानता है। नीच निशाचर और बैरी के भाई विभीषण को कैसा इन्द्र का सा कर दिया। तुलसीदास सा और अनसा (खराब) संसार में कौन है, नाम लेने से उसे भी अपना लिया। भारत के दुःख को हरनेवाले राम हैं, उनसा गरीबनेवाज दूसरा नहीं है। पाठान्तर---सैखा, ऐलो।